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________________ xiii ब्रजमंडल, शांति, वर्धमान, षोडशकारण, सरस्वती, सर्वत्रोभद्र यंत्र समाहित हैं। प्रस्तुत कृति में लेखक द्वारा इनका सम्यक् विवेचन किया गया है। ताणपत्र या कागज के बने यंत्रों में संख्यायें या अक्षर होते हैं। ऐहिक कामना वाले यंत्रों में भी मंत्राक्षर प्रमुख होते हैं। जैनेतर तंत्रों में जहाँ यंत्र देवता प्रधान एवं देवतानुग्रहकांक्षी होते हैं, वहीं जैन यंत्र मुख्यतः गुण प्रधान और मंत्र प्रधान होते हैं। जैन देवताओं के नाम उनमें कम पाये जाते हैं। इन यंत्रों के संस्कार की विधि भी जैनों में अति सरल है। जैन पद्धति में तंत्रवाद सामान्यतः यह माना जाता है कि मंत्रवाद और तंत्रवाद का चरम लक्ष्य एक ही है- परम आध्यात्मिक विकास एवं ईश्वरत्व या अद्वैतत्त्व की प्राप्ति । इसीलिये प्रारंभ में इनके लिये मंत्र-तंत्र के रूप में एक ही शब्द प्रयुक्त होता रहा। जैनेतर तंत्रों में मंत्र वैदिक क्रियाकांड के प्रतीक हैं और तंत्र वैदिकोत्तर क्रियाकाण्ड के प्रतीक हैं और कलियुग के लिये सर्वाधिक फलप्रद माने गये हैं। 'तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यं' के आधार पर भारतीय सस्कृति बुद्धिवाद से परे जाकर श्रद्धावाद की गोद में पनपती रही है। गोपनीय क्रियाकाण्ड होने से तंत्रों की विविधता गुरुओं पर निर्भर करती हैं। यही कारण है कि हिन्दी विश्वकोश-६ में लगभग दो सौ हिन्दू तंत्रों और ७२ बौद्ध तंत्रों के नाम दिये गये हैं। भारत के अतिरिक्त चीन, नेपाल, तिब्बत भी तंत्रवाद के केन्द्र रहे हैं। काशी आज भी इसका केन्द्र है। तांत्रिकों के मुख्यतः दो प्रकार के क्रियाकाण्ड होते हैं(१) वैदिक और (२) वामाचार या (उत्तर) कौलाचार । पर इनमें 'तांत्रिक' शब्द से आजकल वामाचारीय या कौलाचारी ही लिये जाते हैं जो पंचमकार सेवन द्वारा अभिषिक्त होते हैं, इन्हें ही वीरभावी कहा जाता है। ये शिव, विष्णु एवं शक्ति के पूजक माने जाते हैं। यदि हम 'तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यं' की धारणा के विपर्यास में ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करें, तो जैनेतर तंत्रवाद के उल्लेख शंकराचार्य के बाद ही स्पष्टतया मिलते हैं। इसे गौड़ एवं कामाख्या से उद्भूत माना जाता है। समयानुसार इसका १५वीं सदी तक विकास होता रहा। इसमें विभिन्न प्रकार के कम से कम ५२ विषयों का वर्णन पाया जाता है। तंत्रवाद के साधन मार्ग को पहले "पाखण्ड" कहा जाता था, पर बाद में इस नाम के प्रति उदासीनता हो गई। तांत्रिक क्रियाकाण्ड में योग्य पात्र सद्गुरु से शुभमास, मुहूर्त एवं नक्षत्र में दीक्षा ग्रहण करता है और फिर पूर्णाभिषिक्त होता है। इसमें अभिलषित देवी-देवताओं का पूजन, अभिमंत्रण एवं कुल-पूजन भी होता है। वामाचार या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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