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मंत्र साधना और जैनधर्म हैं। उसी प्रकार वाचिकऋद्धियाँ भी प्राप्त होती हैं। यथा-क्षीरानवित्व, मध्वासवित्व, वादित्व, सर्वरुतज्ञत्व और सर्वसत्त्वाववोधन इत्यादि । इसका तात्पर्य यह है कि जिसके सामर्थ्य से सदा ऐसे वचन निकलें, जोकि सुननेवाले को दूध के समान मधुर मालूम पड़ें, उसको क्षीरासवी और यदि ऐसा जान पड़े मानों शहद झड़ रहा है, जो मध्वास्रवऋद्धि' कहते हैं। हर तरह के वादियों को शास्त्रार्थ में परास्त करने की सामर्थ्य विशेष का नाम वादित्वऋद्धि है। प्राणिमात्र के शब्दों को समझ सकने की शक्ति विशेष का नाम सर्वरुतज्ञत्व तथा सभी जीवों को बोध कराने की-समझाने की जिसमें सामर्थ्य पाई जाय, उसको सर्वसत्वावबोधन कहते हैं। इसी प्रकार और भी वाचिकऋद्धियाँ समझनी चाहिये, जो वचन की शक्ति को प्रकट करने वाली हैं। तथा इनके सिवाय विद्याधरत्व, आशीविषत्त्व और भिन्नाक्षर और अभिन्नाक्षर दोनों ही तरह की चतुर्दशपूर्वधरत्व की ऋद्धियाँ प्राप्त हुआ करती हैं।
वस्तुतः सूरिमन्त्र की रचना इन्हीं ऋद्धि या लब्धिधारकों के प्रति प्रतिपत्ति के रूप में की गई है। यह माना जाता है कि इन ऋद्धिधारकों के प्रति प्रतिपत्तिपूर्वक इनका जप करने से ये लब्धियाँ साधक को भी प्राप्त हो जाती हैं। नीचे हम सिंहतिलक सूरि के मन्त्रराजरहस्य में दिये गये सूरिमन्त्र के विभिन्न प्रस्थानों में से एक प्रस्थान उदद्ध कर रहे हैं। इसके विभिन्न प्रस्थानों में एक प्रस्थान उदघृत कर रहे हैं। इनके विभिन्न विद्यापीठों, आम्नायों आदि की जानकारी तो इस ग्रन्थ से की जा सकती हैगणधर वलय/सूरिमंत्र १. ॐ नमो जिणाणं। २. ॐ नमो ओहिजिणाणं। ३. ॐ नमो परमोहिजिणाणं। ४. ॐ नमो अणंतोहिजिणाणं।
१. यहाँ पर इन ऋद्धियों का अर्थ वचनपरक किया गया है। किन्तु
दिगम्बर-सम्प्रदाय में इनका अर्थ इस प्रकार है- जिसके सामर्थ्य से शाकपिंड का भी भोजन दुग्धरूप परिणमन करे-दूध के समान गुण दिखाये, उसको क्षीरस्रावीऋद्धि कहते हैं। इसी प्रकार सर्पिःस्रावी अमृतस्रावी आदि
का भी अर्थ समझना चाहिये। १. चौदहपूर्व के ज्ञान में एकाध अक्षरप्रमाण ज्ञान कम हो तो भिन्नाक्षर और एक
भी अक्षर कम न हो, तो अभिन्नाक्षर कहा जाता है।
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