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________________ १२४ जैनधर्म और तान्त्रिक साधना कर सकता है। इच्छानुसार चाहे जिस तरह भूमि या जलपर चलने की सामर्थ्य विशेष को प्राकाम्यऋद्धि कहते हैं। इसके सामर्थ्य से पृथिवी पर जल की तरह चल सकता है, जिस प्रकार जल में मनुष्य तैरता है, उसी प्रकार पृथिवी पर भी तैर सकता है और निमज्जनोन्मज्जन भी कर सकता है। जिस प्रकार जल में डुबकी लगाते हैं, या उतराने लगते हैं, उसी प्रकार पृथिवी पर भी जल की समस्त क्रियाएं इस ऋद्धि के सामर्थ्य से की जा सकती हैं। तथा जल में पृथिवी की चेष्टा की जा सकती है- जिस प्रकार पृथिवी पर पैरों से डग भरते हुए चलते हैं, उसी प्रकार इसके निमित्त से जल में भी चल सकते हैं। अग्नि की शिखा-ज्वाला धूप नीहार-तुषार और अवश्याय मेघ जलधारा मकड़ी का तन्तु सूर्य आदि ज्योतिष्क विमानों की किरणें तथा वायु आदि में से किसी भी वस्तु का अवलम्बन लेकर आकाश में चलने की सामर्थ्य को जंघाचारणऋद्धि कहते हैं। आकाश में पृथिवी के समान चलने की सामर्थ्य को आकाशगतिचारणऋद्धि कहते हैं। इसके निमित्त से मुनिजन भी, जिस प्रकार आकाश में पक्षी उड़ा करते हैं, और कभी ऊपर चढ़ते कभी नीचे की तरफ उतरते हैं, उसी प्रकार बिना किसी प्रकार के अवलम्बन के आकाश में गमनागमन आदि क्रियाएं कर सकते हैं। जिस प्रकार आकाश में गमन करते हैं, उसी प्रकार बिना किसी तरह के प्रतिबन्ध के पर्वत के बीच में होकर भी गमन करने की सामर्थ्य जिससे प्रकट हो जाय- उसको अप्रतिघातीऋद्धि कहते हैं। अदृश्य हो जाने की शक्ति जिससे कि चर्मचक्षुओं के द्वारा किसी को दिखाई न पड़े ऐसी सामर्थ्य जिससे प्रकट हो उसको अन्तर्धानऋद्धि कहते हैं। नाना प्रकार के अवलम्बनभेद के अनुसार अनेक तरह के रूप धारण करने की सामर्थ्य विशेष को कामरूपिताऋद्धि कहते हैं। इसके निमित्त से भिन्न-भिन्न समयों में भी अनेक रूप रक्खे जा सकते हैं, और एक काल में एक साथ भी नानारूप धारण किये जा सकते हैं। जिस प्रकार तैजस पुतला का निर्गमन होता है, उसी प्रकार अन्यत्र भी समझना चाहिये। दूर से ही इन्द्रियों के विषयों का स्पर्शन, आस्वादन, घ्राण, दर्शन और श्रवण कर सकने की सामर्थ्य विशेष को दूरश्रावीऋद्धि कहते हैं। क्योंकि मतिज्ञानावरणकर्म के विशिष्ट क्षयोपशम हो जाने से मतिज्ञान की विशुद्धि में जो विशेषता उत्पन्न होती है, उसके द्वारा ऋद्धि का धारक इन विषयों का दूर से ही ग्रहण कर सकता है। युगपत्-एक साथ अनेक विषयों के परिज्ञान-जान लेने आदि की शक्ति विशेष को संभिन्नज्ञानऋद्धि कहते हैं। इसी प्रकार मानसज्ञान की ऋद्धियाँ भी प्राप्त हुआ करती हैं। यथा- कोष्ठबुद्धित्व, बीजबुद्धित्व और पद प्रकरण उद्देश अध्याय प्राभृत वस्तु पूर्व और अङ्ग की अनुगामिता ऋजुमतित्व, विपुलमतित्व परचित्तज्ञान (दूसरे के मन का अभिप्राय जान लेना), अभिलषित पदार्थ की प्राप्ति होना, और अनिष्ट पदार्थ की प्राप्ति न होना, इत्यादि अनेक ऋद्धियाँ भी प्राप्त हुआ करती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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