________________
मंत्र साधना और जैनधर्म
यापनीय (दिगम्बर) परम्परा में मूलाचार ( ज्ञानपीठ प्रकाशन... गाथा ५१४ ) में मिलता है। इससे फलित होता है कि लगभग दूसरी-तीसरी शती में इसमें शेष तीन पदों का समायोजन हो गया होगा क्योंकि भगवती, प्रज्ञापना आदि श्वेताम्बर मान्य आगमों में और षट्खण्डागम के प्रारम्भ में इनका उल्लेख मिलता है । आगे चलकर सूरिमंत्र - गणधरवलय और वर्धमान विद्या आदि मंत्रों का विकास हुआ । षट्खण्डागम में भी सूरिमंत्र के अनेक पद उपलबध हैं । अतः यह कहा जा सकता है कि लगभग पाँचवीं-छठी शती में सूरिमंत्र और कुछ विद्याओं की सिद्धि से सम्बन्धित मंत्र निर्मित हो चुके थे। ये सभी मंत्र नमस्कार प्रधान ही थे। इनमें आराध्य या उपास्य पञ्चपरमेष्ठिन् ही थे। सूरिमंत्र में भी अरहन्त, सिद्ध, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, केवलज्ञानी, तपस्वी उग्रतपस्वी, पूर्वधारी, एकादस - अंगधारी, श्रुतकेवली, प्रज्ञाश्रमण तथा शीतलेश्या, तेजोलेश्या आदि विविध द्वियों (विशिष्ट शक्तियों) के धारकों को ही नमस्कार किया जाता है। अतः सूरिमंत्र / गणधरवलय भी नमस्कार मंत्र का ही विकसित रूप है ।
८७
यहाँ ध्यान देने योग्य एक तथ्य यह है कि एक ओर नमस्कार मंत्र में पदों का विस्तार करके मंत्र निर्मित हुए तो दूसरी ओर उसका संक्षिप्तीकरण करके भी कुछ जैन मंत्र निर्मित हुए। इस नमस्कार मंत्र के पाँच पदों के पाँच आद्याक्षरों के आधार पर 'नमो असिआउसाय' ऐसा एक मंत्र बनाया गया। साथ ही इन पाँच पदों में सिद्ध को अशरीरी और साधु को मुनि मानकर उनके प्रथमाक्षरों अ+अ+आ+उ+म् से ओउम् (ॐ) को निष्पन्न बताया गया । इस प्रकार जैनों के लिए प्रणव (ॐ) शब्द पञ्चपरमेष्ठिन् का वाचक बन गया। कालक्रम में प्रणव की स्वीकृति के साथ-साथ अन्य अनेक बीजाक्षर यथा - ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं, क्रों, ब्लूं ब्लैं, ग्लौं, द्रॉं, द्रीं, हुं फट् आदि भी तांत्रिक परम्परा से ग्रहण करके जैन मंत्रों के निर्माण में योजित किये गये । मात्र यही नहीं स्वाहा, वषट्, वौषट् आदि के साथ आह्वान, सन्निधिकरण, विसर्जन आदि की प्रकियाएँ भी जैन मंत्रों में जुड़ गईं। यह सब परिवर्तन जो जैन मंत्रों में आया वह तंत्र के प्रभाव का ही परिणाम था, इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है। नमस्कार मंत्र जैसे शुद्ध आध्यात्मिक मंत्र पर तंत्र का कितना अधिक प्रभाव आया यह मानतुङ्ग की कही जाने वाली एक ३२ गाथाओं की लघुकृति से स्पष्ट हो जाता है। इस कृति में पाँच पदों के सम्बन्ध में उनके वर्ण, रस, ध्यान-स्थान आदि अनेक तथ्यों का निरूपण भी है। इसमें यह भी बताया है कि नमस्कार मंत्र के किस पद की जप -- साधना से किस ग्रह का प्रकोप शांत होता है। अतः यह स्पष्ट है कि जैन तंत्र साधना में सर्व प्रथम नमस्कारमन्त्र को मंत्र के रूप में गृहीत किया गया, इसके निम्न मन्त्र रूप मिलते हैं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org