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________________ 15 जैनधर्म और तान्त्रिक साधना प्रभाव पड़ा है और जैन आचार्यों ने अनेक तान्त्रिक तंत्र-मंत्रों को बिना पूर्व समीक्षा के ही अपना लिया था। नमस्कार मन्त्र जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं जैन मंत्र साहित्य में प्राचीनतम मंत्र तो नमस्कार मंत्र (नमोक्कार मंत्र) ही है। वर्तमान में यह मंत्र पञ्चपदात्मक है, क्योंकि इसमें पञ्चपरमेष्ठिन् को नमस्कार किया जाता है। ज्ञातव्य है कि ये पाँच पद व्यक्तियों के सूचक न होकर मात्र पदों (Posts) के सूचक हैं, ये पाँच पद हैं- अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और मुनि (साधु)। यह मंत्र जैनों का गायत्री मंत्र कहा जा सकता है क्योंकि प्रत्येक लौकिक कार्य एवं आध्यात्मिक साधना के प्रारम्भ में इसका उच्चारण किया जाता है। परम्परागत मान्यता तो यह है कि इसे समस्त पूर्व साहित्य का 'सार' कहा जाता है 'चवदह पूरव केरो सार, सदा समरो मंत्र नवकार ।' इस मंत्र की साधना से घटित अलौकिक चमत्कारों से सम्बन्धित अनेकानेक अनुभूतियाँ और कथाएँ जैन परम्परा में प्रचलित हैं। सामान्य जैन व्यक्ति को यह भी विश्वास है कि यह मंत्र अनादि-अनिधन है, किन्तु जैन विद्वानों ने इस मंत्र का एक ऐतिहासिक विकास क्रम स्वीकार किया है। उनके अनुसार सर्वप्रथम तो सिद्ध पद ही था क्योंकि आगम में ऐसा उल्लेख है कि तीर्थंकर/अर्हत भी दीक्षा, प्रवचन आदि के प्रारम्भ में सिद्धों को नमस्कार करते हैं (सिद्धाणं णमो किच्चा......) बाद में इसमें अर्हन्तपद योजित हुआ। लगभग ई०पू० दूसरी शती तक 'नमो अरहन्ताणं, नमो सव्वसिद्धाण' ये दो पद प्रचलित रहे होंगे क्योंकि खारवेल हत्थी गुम्फा (ई०पू० प्रथम शती) और मथुरा (ई० की प्रथम द्वितीय शती) के अभिलेखों में इन दो पदों का ही उल्लेख मिलता है। प्रारम्भ में इन दो पदों का प्रचलन रहा है। इसका एक प्रमाण यह है कि अंगविज्जा (ई० सन् प्रथम द्वितीय शती) में महानिमित विद्या एवं प्रतिहार विद्या सम्बन्धी जो मन्त्र दिये गये हैं उनमें भी णमो अरिहंताणं और णमो सव्वसिद्धाणं ऐसे दो पद ही हैं। ज्ञातव्य है कि प्रतिहार विद्या के, मन्त्र में तीसरा पद णमो सव्व साहूणं भी है। प्रतिरूप विद्या सम्बन्धी मंत्र में नमो अरिहंताणं ओर नमो सिद्धाणं ऐसे दो पद मिलते हैं। यहाँ सिद्ध पद के साथ सव्व (सर्व) विशेषण भी नहीं है जबकि उसी ग्रन्थ में भूतिकर्मविद्या और सिद्धविज्जा में पञ्चपदात्मक नमस्कार मन्त्र है। इससे फलित होता है कि पञ्चपदात्मक नमस्कार मंत्र लगभग ईसा की दूसरी शती के पूर्व अस्तित्व में था। इसमें "एसो पञ्च नमोक्कारो आदि प्रशस्ति पद इसके पश्चात् जुड़े हैं। इनका सर्वप्रथम निर्देश श्वेताम्बर परम्परा में आवश्यक नियुक्ति (१०१८) और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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