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________________ 12 - + १००या. E. तृतीय अध्याय [५९ विदेह क्षेत्र 33684 नील कुलाचल . 16842 ४००यो. १००यो. रम्यक क्षेत्र 8421 रूक्मि कुलाचल 4210 २००यो. ५० हैरण्यवत क्षेत्र 2105 शिखरी कुलाचल 105212 " २००यो. २५ ऐरावत क्षेत्र 526 :- " भरत और ऐरावतक्षेत्रमें कालचक्र का परिवर्तनभरतैरावतयोवृद्धिह्रासौषट्समययाभ्यामु त्सर्पिण्यव सर्पिणीभ्याम् ॥२७॥ अर्थ- (षट् समयाभ्याम् ) छह कालों से युक्त ( उत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम् ) उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीके द्वारा ( भरतैरावतयोः) भरत और ऐरावत क्षेत्रमें जीवोंके अनुभव आदिकी (वृद्धिहासौ ) बढती तथा न्यूनता होती रहती है। भावार्थ- बीस कोड़ाकोड़ी सागरका एक कल्पकाल होता है। उसके दो भेद हैं-१ उत्सर्पिणी-जिसमें जीवोंके ज्ञान आदिकी वृद्धि होती है और २ अवसर्पिणी- जिसमें जीवोंके ज्ञान अदिका ह्रास होता है। अवसर्पिणीके छ भेद हैं-१ सुषमसुषमा २ सुषमा, ३ सुषमदुःषमा, ४ दुःषमसुषमा, ५ दुःषमा और ६ अतिदुःषमा। इसी प्रकार उत्सर्पिणीके भी अतिदुःषमाको आदि लेकर छह भेद हैं। . इन छह भेदोंके कालका नियम इस प्रकार हैं १-सुषमासुषमा-चार कोड़ाकोड़ी सागर, २ सुषमा-तीन कोड़ाकोड़ी सागर, ३ सुषमादुःषमा-दों कोड़ा कोड़ी सागर, ४-दुषमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001795
Book TitleMokshshastra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorPannalal Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, P000, P005, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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