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________________ पंचम अध्याय [ ८३ कभी नष्ट नहीं होते इसलिए नित्य हैं। अपनी ६ संख्याका उल्लङ्घन नहीं करते इसलिए अवस्थित हैं और रूप रस, गन्ध तथा स्पर्शसे रहित हैं इसलिये अरूपी हैं ॥४॥ पुद्गल द्रव्य अरूपी नहीं है रूपिणः पुद्गलाः ॥५॥ अर्थ- पुद्गल द्रव्य रूपी अर्थात् मूर्तिक हैं। नोट- यद्यपि सूत्रमें पुद्गलको सिर्फ रूपी बतलाया हैं; पर साहचर्यसे रस, गन्ध तथा स्पर्शका भी ग्रहण हो जाता है ।। ५ ।। द्रव्योंके स्वभेदकी गणनाआ आकाशादेकद्रव्याणि ॥६॥ अर्थ- आकाश पर्यंत एक एक द्रव्य हैं अर्थात् धर्म द्रव्य, अधर्मद्रव्य और आकाशद्रव्य एक एक हैं । जीवद्रव्य अनन्त हैं, पुद्गलद्रव्य अनन्तानन्त हैं और कालद्रव्य असंख्यात ( अणुरूप) हैं ॥६॥ निष्क्रियाणि च ॥७॥ अर्थ- धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों द्रव्य क्रिया रहित हैं। क्रिया- एक स्थानसे दूसरे स्थानमें प्राप्त होनेको क्रिया कहते हैं। नोट- धर्म और अधर्म द्रव्य समस्त लोकाकाशमें व्याप्त हैं तथा आकाशद्रव्य लोक और अलोक दोनोंजगह व्याप्त है; इसलिये अन्य क्षेत्रका अभाव होनेसे इनमें क्रिया नहीं होतीं ॥ ७॥ द्रव्योंके प्रदेशोंका वर्णन- . असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधमैकजीवानाम् ॥८॥ अर्थ-(धर्माधर्मकजीवानाम् ) धर्म अधर्म और एक जीव द्रष्यके (असंख्येयाः) असंख्यात ( प्रदेशाः) प्रदेश होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001795
Book TitleMokshshastra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorPannalal Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, P000, P005, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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