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96 / सूक्तरत्नावली
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भर्तुर्वैरिणि वैरित्व,-मुचितं रुचिशालिनाम् । रवेर्धात्यं तमो हन्ति, दीपस्तल्लब्धदीधितिः ।। 397 ।। - रुचि अथवा श्रद्धवान् व्यक्तियों का अपने स्वामी के शत्रु के प्रति वैरभाव रखना समीचीन माना गया है। सूर्य से प्रकाशप्राप्त करने वाले दीपक का रविशत्रु (अन्धकार) का नाश करना उचित है। दीपक अपने स्वामी सूर्य के वैरि अन्धकार को हटाने या मारने को सन्नद्द रहता है।
जडसंगोऽपि समये, क्लुप्तः श्रीहेतुरायतौ। स्थाने निर्मित एव स्या,-दन्यशृंगारसंगमः ।। 398 ।।
उचित समय पर किया हुआ जड़ का संग भी भविष्य में लक्ष्मी का हेतु होता है। उचित स्थान में अन्य शृंगार सामग्री का मिलन शोभा कारक होता है। येषामभ्युन्नतिस्तेषा,-मेव प पतनं भवेत् । समुन्नतिं च पातं च, स्तना एवाप्नुवन्ति यत्।। 399 ।।
जिनकी उन्नति होती है उनका पतन भी होता है। उन्नत स्तन ही पतन एवं उन्नति को प्राप्त होते हैं।
गुणवत्स्वेव पश्यामः, परोपद्रवरक्षिताम् । शक्तिर्यत् खेटकेष्वेव, विविधायुधवारिणी।।400 ।।
गुणवान् व्यक्तियों में ही शत्रु द्वारा विहित उपद्रव से रक्षा करने की शक्ति विद्यमान रहती है। क्योंकि अनेक प्रकार के शत्रुओं के वारों का निवारण करने का सामर्थ्य खेटक (ढाल) में ही रहता है। उत्सवेऽपि सदा प्रोच्चैः स्तब्धानां स्यादनुत्सवः। यदाऽऽनन्दिनि संभोगे, मुष्टिघाता उरोजयोः ।। 401||
उच्च व्यक्तियों के आनन्द का अवसर होने पर दुर्जन व्यक्तियों
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