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________________ 94 / सूक्तरत्नावली संगताः कलये नूनं, कठिनाः कठिनात्मभिः । अग्निरुत्पद्यते सद्यः संयोगे ग्रावलोहयोः ।। 387 ।। कठोर आत्मा से कठोर आत्मा का मिलन निश्चित ही कलहकारी होता है। लोहे और पत्थर का संग होने पर शीघ्र ही अग्नि उत्पन्न होती है। यत्र तिष्ठेत् कठोरात्मा, तत्राऽनर्थाय भूयसे । मध्येघण्टं स्थिता लाला, घण्टां हन्ति समन्ततः ।।38811 जहाँ कठोर आत्मा स्थित होती है वहाँ अनर्थ होता है। घण्टे के मध्य में स्थित लोहे या पीतल का टुकड़ा चारों ओर से घण्टे को ही पीटता है। गुणहारिणि मन्देऽपि, नश्यते गुरुणा स्वधीः । बिम्बन्यासः सुखाधेयः, पीवरेऽपि हि चीवरे।। 389 ।। गुणों के हरण करने वाले मन्दबुद्धि शिष्य में गुरु द्वारा अपनी बुद्धि नष्ट की जाती है। निश्चय ही शुद्ध वस्त्र में बिम्ब का आधान सुखपूर्वक (सरलतापूर्वक या आसानी से) किया जा सकता है। मध्यस्थ: प्रतिभूः क्लृप्तः, स्याद्धिताय द्वयोरपि। देहल्यां निहितो दीपो, बहिर्मध्ये च तेजसे।। 390 ।। मध्य में स्थित जमानत देने वाला व्यक्ति दोनों पक्षों के हित के लिए होता है। देहली पर रखा दीपक अन्दर एवं बाहर दोनों ही स्थानों पर प्रकाश करता है। गुणस्तनोति स्वल्पोऽपि, मानं श्यामात्मनामपि। मधुरेण स्वरेणाऽपि, काम्यन्ते किं न कोकिला?||391 ।। हमारे थोड़े से गुण भी हमारी कीर्ति को फैलाते हैं। मात्र मधुर स्वर के कारण कोयल भी क्या प्रिय नहीं होती हैं ? Coooooooooooo o oo00000000 00000000000000000000 g o seobossoso66600000000000000000000 sec8c6e09066 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001793
Book TitleSuktaratnavali
Original Sutra AuthorSensuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2008
Total Pages132
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size7 MB
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