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________________ B888888888 - सूक्तरत्नावली / 89 कुटिल व्यक्ति स्वयं के स्थान पर कुटिलता का त्याग कर देता है। सर्प बिल में प्रवेश करते समय अपनी कुटिल चाल को क्या नहीं छोड़ देते हैं ? लघूनामपि केषां चि, दात्मवि श्रेष्ठा भवति। कृशाऽपि किं न कूष्माण्डी, दत्ते गुरुतरं फलम्? ||362।। कभी-कभी छोटे व्यक्तियों की भी आत्मशक्ति अधिक होती है। तुमड़े का वृक्ष कृशकाय होते हुए भी क्या बड़े फल नहीं देता? संशये सम्पदा मानोन्नता एवासिताननाः। पयोऽस्तु माऽस्तु वा तौड्यं, तारुण्ये स्यादुरोजयोः।।363।। संपत्ति हो या न हो फिर भी अहंकारी व्यक्ति अपनी श्रेष्ठता का घमण्ड करता है। स्तन में दूध हो अथवा न हो तारुण्य में वे सदैव ही उन्नत रहते हैं। संग श्यामात्मनां मुञ्च, पदमुच्चैर्यदीहसे । तैलं त्यक्तखलं श्रीमन्, मूर्धानम्अधिरोहति।। 364।। यदि उच्च पद की चाह हो तो दुष्ट व्यक्तियों का संग छोड़ दो। खली से रहित तैल धनी व्यक्तियों के सिर पर लगाया जाता है। भग्नता ज्ञायते सज्जी-भूतेऽपि शिथिलात्मनि। लाक्षासज्जोऽपि नाज्ञायि, भग्नोऽयमिति किं घट?||365 ।। शिथिल व्यक्ति सज्जीभूत होने पर भी वह सजावट उसके पतन का ही प्रतीक होती है। लाख से सजा हुआ घड़ा क्या "यह फूटा है" ऐसा मालूम नहीं पड़ता ? धन्यात्मा भग्नभावोऽपि, भवति प्रीतिमान् पुनः। भूतोऽपि दलशः स्वर्ण,-कलशः सन्धिमेति यत्।।366 ।। महान् व्यक्ति भावों के टूट जाने पर भी पुनः प्रीतिवाले जाते BRERONOROSONA608608 BOORRB0000036ORRRRR68888888888000000000000000000000000000000000RRISITORRORRORIGONOBERG600000000000000000000000000000000000000 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001793
Book TitleSuktaratnavali
Original Sutra AuthorSensuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2008
Total Pages132
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size7 MB
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