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सूक्तरत्नावली / 7
दृष्टि में अपने विचारों, वासनाओं व अनुभूतियों को जानने व समझने का प्रयत्नही स्वाध्याय है। वस्तुत:वह अपनी आत्मा का अध्ययन ही है, आत्मा के दर्पण में अपने को देखना है। जब तक स्व का अध्ययन नहीं होगा, व्यक्ति अपनी वासनाओं एवं विकारों का द्रष्टा नहीं बनेगा, तब तक वह उन्हें दूर करने का प्रयत्न नहीं करेगा और जब तक वे दूर नहीं होंगे, तब तक आध्यात्मिक पवित्रता या आत्म-विशुद्धि सम्भव नहीं होगी और आत्म-विशुद्धि के बिना मुक्ति असम्भव है। यह एक सुस्पष्ट तथ्य है कि जो गृहिणी अपने घर की गन्दगी को देख पाती है, वह उसे दूर कर घर को स्वच्छ भी रख सकती है। इसी प्रकार जो व्यक्ति अपनी मनोदैहिक विकृतियों को जान लेता है और उनके कारणों का निदान कर लेता है, वही सुयोग्य वैद्य के परामर्श से उनकी योग्य चिकित्सा करके अन्त में स्वास्थ्य लाभ करता है। यही बात हमारी आध्यात्मिक विकृतियों को दूर करने की प्रक्रिया में भी लागू होती है। जो व्यक्ति स्वयं अपने अन्दर झाँककर अपनी चैतसिक विकृतियों अर्थात् कषायों को जान लेता है, वही योग्य गुरु के सान्निध्य में उनका निराकरण करके आध्यात्मिक विशुद्धता को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार स्वाध्याय अर्थात् स्व का अध्ययन से, आत्म-विशुद्धि की एक अनुपम साधना सिद्ध होती है। हमें स्मरण होगा, स्वाध्याय का मूल अर्थ तो अपना अध्ययन ही है, स्वयं में झाँकना है। स्वयं को जानने और पहचानने की वृत्ति के अभाव से सूत्रों या ग्रन्थों के अध्ययन का कोई भी लाभ नहीं होता है। अन्तर्चक्षु के उन्मीलन के बिना ज्ञान का प्रकाश सार्थक नहीं बन पाता है। कहा भी है
सुबहुपिसुयमहीयं, किं काही? चरणविप्पहीणस्स। अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्स कोडिवि॥ अप्पंपिसुयमहीयं,पयासयं होई चरणजुत्तस्स। इक्को विजह पईवो, सचक्खुअस्सापयासेई॥
. - आव.नि., 98-99 अर्थात् जैसे अन्धेव्यक्ति के लिये करोड़ों दीपकों का प्रकाश भी व्यर्थ है, किन्तु आँख वाले व्यक्ति के लिए एक ही दीपक का प्रकाश सार्थक होता है। उसी प्रकार जिसके अन्तश्चक्षु खुल गये हैं, जिसकी अन्तर्यात्रा प्रारम्भ हो चुकी है, ऐसे आध्यात्मिक साधक के लिये स्वल्पअध्ययनभी लाभप्रद होता है, अन्यथा आत्म-विस्मृतव्यक्ति
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