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सूक्तरत्नावली / 87
प्राप्त करता है, केवल अपने ओज एवं शक्ति के बल पर । मृग को अनेक मृगों के मध्य रहकर भी मृगाधिपति की पदवी नहीं मिलती है। दारेष्वेवादरः पुंसां, यत्र तत्राऽपि दृश्यते । तुल्येऽप्यर्थे वधूधाम्नि, विवोढुं यान्ति यद्वराः । । 351 ।।
पति-पत्नी का संबंध समान होने पर भी पुरुषों द्वारा पत्नियों का हर जगह आदर होता है। समान कर्तव्य होने पर भी स्त्री घर को वहन करने में श्रेष्ठ होती है।
परिवारमपेक्षते ।
दो ष्मान्नाविधो द्युक्तः, घ्नतः करिघटामासीत्, कः सिंहस्य परिच्छदः ? | |352 ||
मात्र अपने भुजबल के सहारे शत्रुवध हेतु उद्यत् वीर पुरुष परिवार जनों की अपेक्षा नही रखता। क्या हाथियों के समूह पर टूट पड़ने वाले सिंह के साथ उसका परिवार रहता है ? अर्थात् नहीं । प्रभुता स्याददत्तैव दोष्मतामतिशायिनी । आधिपत्यं मृगैर्दत्तं, किमु केसरिणामभूत् ? ।। 353 ।।
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दोषी व्यक्तियों की अत्यधिक प्रभुता प्रायः अदत्त ही होती है । हरिणों द्वारा दिया हुआ आधिपत्य क्या सिंहों का हुआ ? अर्थात् नहीं । कोमलानामनर्थाय व्यापारः कठिनात्मनाम् । न स्याद्भ्रमिर्घरट्टानां कणानां दलनाय किम्? ||354 | 1
कठोर लोगों का व्यापार कोमल लोगों के अनर्थ के लिए होता है। चक्की क्या कोमल दानों को दलने के लिए नहीं घूमती है ? येषां संपत्तयः प्राय - स्तेषामेव विपत्तयः । हयेऽधिरोहः पुंसां स्यात्, पुंसां चान्त्रिषु शृखंला । 1355 ||
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जो जिसकी संपत्ति होती है वही उसकी विपत्ति भी होती है । घोड़े पर सवार व्यक्तियों के पैरों मे साँकल भी होती है।
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