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________________ sososa सूक्तरत्नावली / 85 .in कलिः कलिकृतां पार्वे, स्थितानामप्यभूतये। वंशसंघर्षभूरग्निः , किं दहेन्नाऽखिलं वनम् ?|| 34111 कलह उत्पन्न होने पर आस-पास मे स्थित वातावरण को भी कलहमय बना देता है। बाँस के संघर्ष से उत्पन्न अग्नि क्या पूरे वन को नहीं जला देती है ? सुखचिह्नमपि स्थाने, प्राप्तमाल्हादयेज्जगत् । स्थितं किं कामकृन्नासीत्, स्मितं स्मितमुखीमुखे? ||342।। सुख के चिह्न द्वारा भी जगत् प्रसन्नता को प्राप्त करता है। प्रसन्न मुख होने पर क्या काम-क्रीड़ा नहीं होती है ? गुरौ पूर्णेऽपि निर्बुद्धि,-स्तद्विद्यां लातुमक्षमः । अप्यब्धौ लेहनप्रह्वा, रसना रसनालिहाम्।। 343|| गुरु के पूर्ण विद्वान् होने पर भी र्निबुद्धि शिष्य उस विद्या को प्राप्त करने में समर्थ नहीं होता है। समुद्र के होने पर भी श्वान (कुत्ता) अपनी झुकी हुई जिह्वा के द्वारा आस्वादन नहीं ले सकता है। खलैरेव महात्मानः, क्रियन्ते रसनिर्भराः। आतपैरवे पच्यन्ते, यत्फलान्यानभूरूहाम्।। 344।। महान् व्यक्तियों की महत्ता दुर्जनों द्वारा ही बढ़ती है। आमवृक्ष के फल गर्मी के द्वारा ही पकते हैं। महोत्सवाय मन्यन्ते, पापिनः पापसंस्तवम् । किं निर्भरं न नृत्यन्ति, बर्हिणो विषवीक्षणात्? ।।345 ।। कभी-कभी किसी विशेष कार्य के लिए पापी व्यक्तियों के पाप की प्रशंसा भी मान्य की जाती है। क्या मयूर सर्प को देखने पर नृत्य नहीं करते हैं ? 50000000000000000000000000000000000000000 58888888888888888888 8 8888888888888888 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001793
Book TitleSuktaratnavali
Original Sutra AuthorSensuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2008
Total Pages132
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size7 MB
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