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सूक्तरत्नावली
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जाती है, किन्तु हाथियों को नहीं।
नीचमध्योत्तमेषु स्या, तुल्या दृग् विशदात्मनाम् । किं संक्रान्तिन शीतांशोः, कूटकूपयोधिषु? ||331।।
नीच, मध्यम एवं उत्तम में पंडित व्यक्तियों की दृष्टि समान होती है। क्या चन्द्रमाँ का प्रतिबिम्ब घड़े, कूप, एवं समुद्र में समान रूप से नहीं पड़ता है ? मयाऽस्थापीति मावज्ञा,-स्पदं तेजस्विनां कृथाः । स्वयमुद्दीपितो दीपो, हतोगुल्या न कि दहेत्।।332।। ___ मेरे द्वारा उच्चपद पर बैठाए व्यक्ति को यदि पद से च्युत् करु तो वह मेरी अवज्ञा करेगा। स्वयं ही दीपक जलाए और फिर अंगुलि से बुझाए तो क्या वह अंगुलि को नहीं जलाएगा ? नाऽलं स्वार्थेऽपि शुद्धाः स्युः, परस्परमसङ्गताः। किं मिथो मिलनाभावे, दन्ताश्चर्वणचञ्चवः? ||333||
सहृदयों का परस्पर असहयोग होता है तो स्वार्थ होने पर भी कार्य की सिद्धि नहीं होती है। दाँतों के परस्पर न मिलने पर क्या खाने का आनन्द आता है ? अर्थात् नहीं। दुष्टधीर्वर्धितो यत्र, भवेत्तत्स्थाननाशकृत् । अग्निः प्रोद्दीपितो यत्र, तद्दाहे नास्त्यनिर्णयः ।। 334।।
जहाँ दुष्ट बुद्धि बढ़ जाती है वह उस स्थान के लिए विनाशकारी होती है। जहाँ अग्नि जला दी गई हो वह बढ़ जाने पर उस स्थान को निश्चित ही जलाने के लिए ही होंगी। इमाः स्त्रिय इतीमासु, मा स्म कुर्ववही(हे)लनम् । किमंगुलीविनाऽगुंष्ठः, कृत्यं कर्तुं किमप्यलम् ?||335।।
स्त्री होने पर उनकी अवेहलना नहीं करना चाहिये। अंगुलियों
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