________________
126 / नन्दनमुनिकृत आलोचना
धीर और कायर दोनों ही व्यक्ति निश्चित मृत्यु को प्राप्त होते हैं किन्तु धीर व्यक्ति इस प्रकार मरण को प्राप्त करता है कि, जिससे पुनः न मरना पड़े।
27. अर्हन्तो मम शरणं शरणं सिद्ध साधवः । उदीरितः केवलिभिर्धर्मः शरणमुच्चकैः ॥27॥
·
मुझको अरिहन्त का शरण, सिद्ध का शरण, साधु का शरण और केवल भगवान् द्वारा कथित धर्म का शरण - ऐसे श्रेष्ठतम शरण प्राप्त हो । 28. जिनधर्मो मम माता गुरुस्तातोऽथ सोदराः ।
साधवः साधर्मिकाश्च बन्धवोऽन्यत् तु जालवत् ॥28॥
जिनधर्म मेरी माता है, गुरु पिता है, साधुजन सदोहर है और साधर्मिक जन बन्धुवत है किन्तु अन्य परिजन तो जाल के समान है अर्थात् मोह रुपी बन्धन में डालने वाले हैं।
29. ऋषभादींस्तीर्थकरान् नमस्याम्यखिलानपि । भरतैरावत विदेहार्हतोऽपि नमाम्यहम् ॥29॥
मैं ऋषभ आदि भरत, ऐरावत और महाविदेह क्षेत्र के सभी तीर्थकरों को नमस्कार करता हूं।
30. तीर्थ कृद्भ्यो नमस्कारो देहभाजां भवच्छिदे | भवति क्रियमाणः सन् बोधिलाभाय चौच्चकैः ॥30॥
तीर्थंकरों को किया गया नमस्कार संसार-परिभ्रमण का नाश करता है और उनकी आज्ञा के अनुसार आचरण करने पर श्रेष्ठ बोधिलाभ की प्राप्ति होती है ।
31. सिद्धेभ्यश्च नमस्कारं भगवद्भ्यः करोम्यहम् । कर्मेन्धोऽदाहि यैर्ध्यानाग्निना भव सहस्रजम् ॥31॥
परम ऐश्वर्य वाले सिद्धपरमात्मा, जिन्होनें हजारों भवों के संचित
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org