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________________ wwws नन्दनमुनिकृत आलोचना / 123 इन्द्रियों के वशीभूत होकर मैने रात्रि में जो चारों प्रकार के आहार का सेवन किया उसकी मैं त्रिविध रूप से निन्दा करता हूं। 11. क्रोधो मानो माया लोभो रागो द्वेषो कलिस्तथा पैशुन्यं पर निर्वादोऽभ्याख्यानमपरं च यत्।।11।। मेरे द्वारा क्रोध, मान माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, चुगली, परनिंदा या दूसरों पर मिथ्यारोपण आदि रुप तथा 12. चारित्राचारचाविषयं दुष्टचरितं मया । तदहं त्रिविधेनापि व्युत्सृजामि समन्ततः ।।12।। चारित्रा चार विषयक जो दुष्ट आचरण किया गया है उन सबका भी मैं पूर्ण रुप से मन वचन कर्म से त्याग करता हूं। 13. यस्तपः स्वतिचारोऽभून्मे ब्राह्याभ्यन्तरेषु च । त्रिविधं त्रिविधेनापि बिन्दामि तमहं खलु ॥13॥ बाह्य एवं अभ्यन्तर तप में जो अतिचार (दोष) मुझको लगे हैं उनकी तीन करण एवं तीन योग से निन्दा करता हूं। 14. धर्मानुष्ठानविषयं यद् वीर्य गोपितं मया । वीर्याचारातिचारं च निन्दामितमपि त्रिधा।।14|| शक्ति होते हुए भी धर्मानुष्ठान के विषय में मेरे द्वारा जो शक्ति का गोपन किया गया उस वीर्यातिचार की भी मैं तीन योग से निन्दा करता हूं। 15. हतो दुरुक्तश्च मया यो यस्याऽहारि किञ्चन । यस्यापाकारि किञ्चद्वामम क्षाम्यतु सोऽखिलः ॥15॥ मेरे द्वारा कहे गये दुर्वचन से किसी का किञ्चित भी हृदय दुखित हुआ हो अथवा तिरस्कार हुआ हो, वे सभी मुझे क्षमा करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001793
Book TitleSuktaratnavali
Original Sutra AuthorSensuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2008
Total Pages132
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size7 MB
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