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सूक्तरत्नावली / 99
सुख और लक्ष्मी का उपभोग करने वाले व्यक्तियों का शरीर विनय के लिए उत्सुक रहता है। फलों से लदी हुई शाखाएँ ही झुकती
हैं ।
गुणेषु सत्स्वपि प्रीति, - र्दोषेष्वेवासतां भवेत् । तटाकेऽम्भोजभव्येऽपि, भेकानां कर्दमः प्रियः ।। 412 ।।
सज्जन व्यक्तियों की प्रीति गुणों में होती है और दुर्जन व्यक्तियों की दोषों मे। कमल भव्यतालाब में होते है और मेंढ़को को कीचड़ प्रिय होता हैं ।
आचारेऽपि भृशाधिक्य, - मपि दोषाय जायते । अमुष्यार्थः सखे! वृद्धौ, गुणेऽपि किमु नाऽजनि ? । ।413 । ।
अत्यधिक प्रथाऐं भी दोष को उत्पन्न करने वाली होती हैं । हे मित्र ! स्वरों के होने पर क्या वृद्धि और गुण उत्पन्न नहीं होते हैं ? संकुचेत्पापमुत्कर्ष, प्राप्ते तेजस्विते जसि । किमल्पीयसी छाया, भानौ मध्यमुपागते ? ।। 414 । ।
दिव्य व्यक्ति का प्रकाश प्राप्त कर उत्कर्ष - पाप भी कम हो जाता है। सूर्य के मध्य में आ जाने पर क्या परछाई अपेक्षाकृत छोटी नहीं हो जाती है ?
अन्तः श्यामात्मभिर्वित्तं, दीयतेऽडि. घ्रभिराहतैः । कण्ठन्यस्तपदा एव, कूपा यच्छन्ति यज्जलम् ।। 415 ।।
चरणों से प्रताड़ित मलिन आत्मा द्वारा धन दे दिया जाता है । क्योंकि कुएँ अपने गले पर पाँव रखे जाने पर (कूएँ के ऊपरी भाग पर पाँव रखकर पानी खींचा जाता है) कूआ स्वयं जल प्रदान कर देता है।
गुणित्वे सदृशे कीर्ति, महतां न लघीयसाम् । रत्नवत्त्वेऽपि यद्रत्ना, - करो वार्धिर्न रोहणः ।। 416 ।।
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