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स्त्री में प्रज्ञाश्रमणत्वलब्धि का निषेध है। प्रवचनसारोद्धार में यह स्पष्ट लिखा गया है कि भव्य स्त्रियों में दस लब्धियों को छोड़कर शेष लब्धियाँ होती हैं।
अपने लेख के अग्रिम भाग में उन्होंने एक आधार यह बताया है कि तत्त्वार्थसूत्र में अणगार धर्म के अन्तर्गत केवल पुरुषोचितव्रतनियमों का ही कथन किया गया है। वहाँ स्त्रियों के उचित व्रत नियमों का भूल से भी नाम नहीं लिया गया है । इसके उत्तर में मेरा निवेदन यह है कि तत्त्वार्थसूत्र में कहीं भी श्राविका शब्द का उल्लेख नहीं मिलता है। क्या इस आधार पर वह यह मान लेंगे कि तत्त्वार्थसूत्र श्राविका के व्रतधारी होने का निषेध करता है? क्या उसमें अणुव्रत आदि भी सम्भव नहीं है? आगमों में अथवा मूलाचार आदि में साध्वियों के लिए केवल उन्हीं बातों का अलग से उल्लेख किया गया है जो साधुओं की अपेक्षा भिन्न थीं। समान बातों के बारे में कुछ प्रसंगों को छोड़कर भिक्षु और भिक्षुणी दोनों शब्दों का उल्लेख नहीं है, मात्र भिक्षु का ही उल्लेख है । उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में श्रावक के व्रतों एवं अतिचारों का उल्लेख करते हुए कहीं भी स्त्री के लिए अलग से उल्लेख नहीं किया है। उसमें उल्लेखित स्वपत्नी - सन्तोष-व्रत केवल पुरुषों के लिए है, तो फिर स्त्री के लिए स्वपति - सन्तोष का उल्लेख क्यों नहीं है? फिर तो यह कहना पड़ेगा कि तत्त्वार्थसूत्र श्राविका के अणुव्रती होने का भी निषेध करता है । भाष्य, आचारचूला आदि व्याख्या - ग्रन्थ हैं, अत: इनमें स्पष्टता के लिए भिक्षुणी आदि शब्दों का उल्लेख हुआ है। भाष्य में तो सिद्धों के भेद में स्त्रीमुक्ति का भी उल्लेख है। चूँकि दिगम्बर विद्वान् जब भाष्य को स्वोपज्ञ ही नहीं मानते हैं तो फिर उसका आधार लेकर स्वमत की पुष्टि का प्रयत्न क्यों करते हैं। मूलाचार में तो स्पष्टरूप से मुनि एवं आर्यिका की मुक्ति (सिद्धि) का उल्लेख है। वहाँ दिगम्बर विद्वान् मुनि के लिए तो तद्भव मुक्ति स्वीकार करते हैं किन्तु जब आर्यिका का प्रश्न आता है तो वह भवान्तर में मुक्त होगी ऐसा अर्थ क्यों करते हैं? मूलाचार, षट्खण्डागम आदि दिगम्बर परम्परा को मान्य ग्रन्थों में जब स्त्रीमुक्ति फलित हो रही है, तो फिर वे स्त्रीमुक्ति का निषेध किस आधार पर करते हैं? यदि हम तत्त्वार्थसूत्र के मूल सूत्रों के मात्र शाब्दिक अर्थों को ग्रहण करें तो उसमें न तो स्त्री और पुरुष के भेद से मुक्ति की कोई चर्चा है और न ही स्त्री मुक्ति का निषेध ही है । 'तत्त्वार्थसूत्र में स्त्रीमुक्ति का निषेध' ऐसा प्रतिपादन केवल स्वैर कल्पना अतिरिक्त कुछ नहीं है।
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