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________________ क्या तत्त्वार्थसूत्र स्त्रीमुक्ति का निषेध करता है? : ६३ परवर्ती काल की घटना है इस सम्बन्ध में मेरी पुस्तक 'गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण' में विस्तृत चर्चा की गई है, पाठक उसे वहाँ देखें। यहाँ 'बादरसम्पराय सर्वे' का अर्थ इतना ही है कि जब तक स्थल रूप से कषायों का उदय रहा हुआ है तब तक सभी परीषहों की सम्भावना है। कषायों के क्षय या उपशम का शरीर रचना से कोई सम्बन्ध नहीं है। कषाय मनोवृत्ति है और मनोवृत्ति पर विजय पाने में शरीर बाधक नहीं है। जब पुरुष शरीर में पुरुषवेद आदि नोकषाय समाप्त हो सकते हैं, तो फिर स्त्री शरीर में स्त्रीवेद आदि नोकषाय क्यों समाप्त नहीं हो सकते हैं? तत्त्वार्थसूत्र के ही नौवें अध्याय के ग्यारहवें सूत्र में 'एकादश जिने' नामक सूत्र में जिन के भी ग्यारह परीषह माने गये हैं। यह मूल सूत्र सर्वार्थसिद्धि के पाठ में भी है। परीषहों की उपस्थिति या अनुपस्थिति कहीं भी मुक्ति में साधक या बाधक नहीं है। पुनः वे परीषह शब्द का जो अर्थघटन कर रहे हैं वह भी सम्यक् नहीं है, क्योंकि परीषह वह है जो साधना के क्षेत्र में उपस्थित हो जाता है, परीषह जीवनचर्या में सहज उपस्थित होने वाली घटना है, उसका गृहस्थ और मुनि से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। परीषह गृहस्थ को भी हो सकता है। क्षुधा, नाग्न्य आदि अनेक परीषह गरीब व्यक्ति भी सहन करते हैं। पशुओं को नाग्न्य परीषह नहीं होता इसलिए वह मुक्त नहीं होता तो क्या वे यह मानने को भी सहमत हैं कि दिगम्बर मुनि को भी कभी क्षुधा और पीपासा परीषह होते हैं और कभी नहीं भी होते हैं, क्योंकि दिगम्बर मुनि भी आहार करते हैं, जल पीते हैं, यदि आहार करनेवाले को भी क्षुधा और पीपासा परीषह संभव हो सकते हैं, तो वस्त्रधारी को भी वस्त्र की अल्पता अथवा कभी अनुपलब्धि होने पर नाग्न्य परीषह हो सकता है। यदि आहार करते हुए कैवल्य की प्राप्ति होती है, कैवल्य प्राप्ति में आहारक दशा बाधक नहीं है तो फिर वस्त्र कैवल्य में कैसे बाधक हो सकता है। पुनः परीषह का कैवल्य से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है, क्या जो आहार करेगा उसे कैवल्य की प्राप्ति नहीं होगी? ऐसी स्थिति में तो दिगम्बर मुनि को भी कैवल्य की प्राप्ति असंभव हो जायेगी और कैवल्य की प्राप्ति नहीं होगी तो फिर मुक्ति भी नहीं होगी। सत्य यह है कि मुक्ति का परीषह के सद्भाव या अभाव से कोई सीधा सम्बन्ध ही नहीं है। मेरा, भाई रतनचन्द्रजी से पहला प्रश्न यह है कि आध्यात्मिक विकास या मुक्ति परीषह के सद्भाव में सम्भव है या परीषह के अभाव में संभव है? यदि वे प्रथम विकल्प माने कि मुक्ति परीषह के सद्भाव में ही संभव है तो फिर यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001787
Book TitleJain Dharma Darshan evam Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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