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________________ आत्मा का अपलाप करता है (आचारांगसूत्र १/१/२) यहाँ अहिंसा को अधिक गहन मनोवैज्ञानिक आधार देने के प्रयास में वह जैन दर्शन के आत्मा सम्बन्धी अनेकात्मवाद के स्थान पर एकात्मवाद की बात करता प्रतीत होता है, क्योंकि यहाँ वह इस मनोवैज्ञानिक सत्य को देख रहा है कि केवल आत्मभाव में हिंसा असम्भव हो सकती है। जब तक दूसरे के प्रति पर-बुद्धि है, परायेपन का भाव है तब तक हिंसा की संभावनाएँ उपस्थित हैं। व्यक्ति के लिये हिंसा तभी असंभव हो सकती है जब उसमें प्राणी जगत् के प्रति अपनत्व या आत्मीय दृष्टि जागृत हो। अहिंसा की स्थापना के लिए जो मनोवैज्ञानिक भूमिका अपेक्षित थी उसे प्रस्तुत करने में सूत्रकार ने आत्मा की वैयक्तिकता की धारणा का भी अतिक्रमण कर उसे अभेद की धारणा पर स्थापित करने का प्रयास किया है। हिंसा के निराकरण के प्रयास में भी सूत्रकार ने एक ओर इस मनोवैज्ञानिक सत्य को उजागर किया है कि हिंसा से हिंसा या घृणा से घृणा का निराकरण संभव नहीं है। वह तो स्पष्ट रूप से कहता है शस्त्रों के आधार पर या भय और हिंसा के आधार पर शान्ति की स्थापना संभव नहीं है, क्योंकि एक शस्त्र का प्रतिकार दूसरे शस्त्र के द्वारा संभव है। शांति की स्थापना तो निर्वैरता या प्रेम द्वारा ही संभव है क्योंकि अशस्त्र से बढ़कर अन्य कुछ नहीं है। (आचारांगसूत्र १/३/३) आचारांगसूत्र में मानवीय व्यवहार का प्रेरक तत्त्व सामान्यतया राग और द्वेष यह दो कर्मबीज माने गये हैं, किन्तु इनमें भी राग ही प्रमुख तथ्य है। आचारांगसूत्र में कहा गया है कि आसक्ति ही कर्म का प्रेरक तथ्य है (१/३/२) आचारांगसूत्र और आधुनिक मनोविज्ञान दोनों ही इस सम्बन्ध में एक मत हैं कि मानवीय व्यवहार का मूलभूत प्रेरक तत्त्व वासना या काम है। फिर भी आचारांगसूत्र और आधुनिक मनोविज्ञान दोनों में वासना के मूलभूत प्रकार कितने हैं? इस सम्बन्ध में कोई निश्चित संख्या नहीं मिलती है। पाश्चात्य मनोविज्ञान में जहाँ फ्रायड काम या राग को ही एकमात्र मूल प्रेरक मानते हैं वहीं दूसरे विचारकों ने मूलभूत प्रेरकों की संख्या सौ तक मान ली है फिर भी पाश्चात्य मनोविज्ञान में सामान्यतया १४ निम्न मूल प्रवृत्तियाँ मानी गई हैं- १. पलायनवृत्ति (भय) २. घृणा, ३. जिज्ञासा, ४. आक्रामकता (क्रोध), ५. आत्म गौरव (मान); ६. आत्महीनता, ७. मातृत्व की संप्रेरणा ८. समूह भावना, ९. संग्रहवृत्ति, १०. रचनात्मकता, ११.भोजनान्वेषण, १२. काम, १३. शरणागति और १४. हास्य (आमोद)। आचारांगसूत्र में भय, द्वेष, जिज्ञासा, क्रोध, मान, माया, लोभ, आत्मीयता, हास्य आदि का यत्र-तत्र बिखरा हुआ उल्लेख उपलब्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001787
Book TitleJain Dharma Darshan evam Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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