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भारतीय दार्शनिक ग्रन्थों में प्रतिपादित बौद्ध धर्म एवं दर्शन : २१
का अर्थ ज्ञान में आत्मगत संगति तथा ज्ञान और उसके विषय (अर्थ) में वस्तुगत संगति व उसका अन्य प्रमाणों से अबाधित होना मानता है, वहीं बौद्ध दर्शन अविसंवादकता का सम्बन्ध अर्थक्रिया से जोड़ता है। बौद्ध दर्शन में अविसंवादकता का अर्थ है अर्थक्रियास्थिति, अवंचकता और अर्थप्रापकता । इस प्रकार दोनों दर्शनों में अविसंवादिता का अभिप्राय भिन्नभिन्न है। दूसरे बौद्ध दर्शन में अविसंवादिता को सांव्यवहारिक स्तर पर माना गया है जबकि जैन दर्शन का कहना है कि अविसंवादिता पारमार्थिक स्तर पर होना चाहिए। बौद्धों के प्रमाण के दूसरे लक्षण अनधिगत अर्थ का ग्राहक होना, अकलंक आदि कुछ जैन दार्शनिकों को तो मान्य है, किन्तु विद्यानन्द आदि कुछ जैन दार्शनिक इसे प्रमाण का आवश्यक लक्षण नहीं मानते हैं। मीमांसक अपूर्व को प्रमाण का आवश्यक लक्षण मानते हैं।
४. जैन और बौद्ध दोनों दर्शन इस सम्बन्ध में एकमत हैं कि प्रमाण ज्ञानात्मक है। वे ज्ञान के करण या हेतु (साधन) को प्रमाण नहीं मानते हैं, फिर भी जहाँ जैन दार्शनिक प्रमाण को व्यवसायात्मक मानते हैं वहाँ बौद्ध दार्शनिक कम से कम प्रत्यक्ष प्रमाण को तो निर्विकल्पक मानकर व्यवसायात्मक नहीं मानते हैं।
५. बौद्ध दर्शन में जहाँ प्रत्यक्ष प्रमाण को निर्विकल्पक और अनुमान प्रमाण को सविकल्पक माना गया है वहाँ जैन दर्शन दोनों ही प्रमाणों को सविकल्प मानता है, क्योंकि उनके अनुसार प्रमाण व्यवसायात्मक या निश्चयात्मक ही होता है। उनका कहना है कि प्रमाण ज्ञान है और ज्ञान सदैव सामान्यविशेषणात्मक और सविकल्पक ही होता है। ज्ञातव्य है कि जैन परम्परा में दर्शन और ज्ञान में भेद किया गया है। यहाँ दर्शन को सामान्य एवं निर्विकल्पक और ज्ञान को विशेष और सविकल्पक कहा गया है। बौद्धों का निर्विकल्पक प्रत्यक्ष वस्तुतः जैनों का 'दर्शन' है।
६. जैन दर्शन में सिद्धसेन दिवाकर ने प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों प्रमाणों को ही अभ्रान्त माना है, जबकि बौद्ध दर्शन में प्रत्यक्ष को अभ्रान्त तथा अनुमान को भ्रान्त कहा गया है। इस प्रकार प्रत्यक्ष की अभ्रान्तता तो दोनों को स्वीकार्य है, किन्तु अनुमान की अभ्रान्तता के सम्बन्ध में दोनों में वैमत्य ( मतभेद) है। जैन दार्शनिकों का कहना है कि जो भ्रान्त हो, उसे प्रमाण कैसे माना जा सकता है।
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