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बौद्ध और जैन प्रमाणमीमांसा में समानताएँ और असमानताएँ
जैन एवं बौद्ध प्रमाणमीमांसा के तुलनात्मक विवेचन की दृष्टि से डॉ० धर्मचन्दजी जैन ने अपने शोध-प्रबन्ध 'बौद्ध प्रमाणमीमांसा की जैन दृष्टि से समीक्षा' में विस्तार से चर्चा की है। यहाँ हम उसी आधार पर यह तुलनात्मक विवेचन कर रहे हैं
१. जैन और बौद्ध दर्शन दोनों ही दो प्रमाण मानते हैं, किन्तु जहाँ जैन दर्शन प्रमाण के इस द्विविध वर्गीकरण में प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो प्रमाणों का उल्लेख करता है, वहाँ बौद्ध दर्शन प्रत्यक्ष और अनुमान ऐसे दो प्रमाण स्वीकार करता है। इस प्रकार प्रमाण के द्विविधवर्गीकरण के सम्बन्ध में एकमत होते हुए भी उनके नाम और स्वरूप को लेकर दोनों में मतभेद है। दोनों दर्शनों में प्रत्यक्ष प्रमाण तो समान रूप से स्वीकार हैं, किन्तु दूसरे प्रमाण के रूप में जहाँ बौद्ध अनुमान का उल्लेख करते हैं, वहाँ जैन परोक्ष प्रमाण का उल्लेख करते हैं और परोक्ष प्रमाण के पाँच भेदों में एक भेद अनुमान प्रमाण मानते हैं । प्रत्यक्ष के अतिरिक्त परोक्ष प्रमाण में वे स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान और आगम को भी प्रमाण मानते हैं। जहाँ तक अन्य दर्शनों का प्रश्न है वैशेषिक दो, सांख्य तीन, चार, मीमांसा (प्रभाकर) पाँच, वेदांत एवं भाट्ट मीमांसक छः प्रमाण मानते हैं।
न्याय
२. बौद्ध दर्शन में स्वलक्षण और सामान्यलक्षण नामक दो प्रमेयों के लिए दो अलग-अलग प्रमाणों की व्यवस्था की गई है, क्योंकि उनके अनुसार स्वलक्षण का निर्णय निर्विकल्पक प्रत्यक्ष प्रमाण से होता है, किन्तु जैन दर्शन वस्तुतत्त्व को सामान्य विशेषात्मक मानकर यह मानता है कि जिस प्रमेय को किसी एक प्रमाण से जाना जाता है उसे अन्य अन्य प्रमाणों से भी जाना जा सकता है, अर्थात् सभी प्रमेय सभी प्रमाणों के विषय हो सकते हैं, जैसे अग्नि को प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों प्रमाणों से जाना जा सकता है। इस आधार पर विद्वानों ने बौद्ध दर्शन को प्रमाणव्यवस्थावादी और जैन दर्शन को प्रमाणसंप्लववादी कहा है।
३.
प्रमाणलक्षण के सम्बन्ध में भी दोनों में कुछ समानताएँ और कुछ मतभेद हैं। प्रमाण की अविसंवादकता दोनों को मान्य है, किन्तु अविसंवादकता के तात्पर्य को लेकर दोनों में मतभेद है। जहाँ जैन दर्शन अविसंवादकता
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