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________________ भारतीय दार्शनिक ग्रन्थों में प्रतिपादित बौद्ध धर्म एवं दर्शन आचार्य हरिभद्र की दार्शनिक कृतियों में षड्दर्शनसमुच्चय एक प्रमुख कृति है। इस ग्रन्थ में आचार्य हरिभद्र ने बौद्ध, न्याय, सांख्य, जैन, वैशेषिक तथा जैमिनी (मीमांसक) इन छ: दर्शनों का उल्लेख किया है। ज्ञातव्य है कि षड्दर्शनसमुच्चय के षड्दर्शनों में बौद्ध दर्शन को प्रथम स्थान दिया गया है। बौद्धों के आराध्य सुगत का उल्लेख करते हुए चार आर्यसत्यों की बात कही गई है। चार आर्यसत्यों के साथ-साथ इसमें पंचस्कन्धों का उल्लेख है और उसके पश्चात् संस्कारों की क्षणिकता को बतलाते हुए यह कहा गया है कि वासना का निरोध होना ही मुक्ति है, साथ ही इसमें बारह धर्म आयतनों और दो प्रमाणों- प्रत्यक्ष और अनुमान का भी उल्लेख हुआ है। षड्दर्शनसमुच्चय में बौद्ध धर्म के मूलभूत सिद्धान्तों का निष्पक्ष दृष्टि से प्रतिपादन हुआ है, साथ ही टीकाकार गुणरत्न ने इनकी जैन दृष्टि से समीक्षा भी प्रस्तुत की है। : १७ हरिभद्र का दूसरा ग्रन्थ शास्त्रवार्तासमुच्चय है। जहाँ षड्दर्शनसमुच्चय में विभिन्न दर्शनों के मन्तव्यों का निष्पक्ष दृष्टि से प्रतिपादन है वहाँ शास्त्रवार्तासमुच्चय में समादर भावपूर्वक समीक्षा एवं समन्वयात्मक निष्कर्ष प्रस्तुत किये गए हैं। इस ग्रन्थ के चतुर्थ और छठवें स्तबक में क्षणिकवाद की समीक्षा है। वहाँ पाँचवें स्तबक में विज्ञानवाद और छठवें स्तबक में शून्यवाद की समीक्षा की गई है। इसके अतिरिक्त दसवें स्तबक में सर्वज्ञता प्रतिषेधवाद तथा ग्यारहवें स्तबक शब्दार्थ प्रतिषेधवाद में भी बौद्ध मन्तव्यों की समीक्षा की गई है। समीक्षा के साथ बुद्ध के प्रति समादरभाव व्यक्त करते हुए बुद्ध ने इन सिद्धान्तों का प्रतिपादन तृष्णा के प्रहाण के लिए किया, ऐसा उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त अनेकान्तजयपताका के पाँचवें आदि अधिकारों में बौद्ध के योगाचार दर्शन की समीक्षा उपलब्ध होती है । अनेकान्तवाद प्रवेश में भी अनेकान्तजयपताका के समान ही अनेकान्तवाद को सरल ढंग से स्थापित करने का प्रयत्न किया गया है। इस ग्रन्थ में भी बौद्ध ग्रन्थों के उल्लेख एवं समीक्षाएँ उपलब्ध होती हैं। इसी क्रम में हरिभद्र के योगदृष्टिसमुच्चय में भी बौद्धों के क्षणिकवाद की समीक्षा उपलब्ध होती है। संक्षेप में हरिभद्र ने बौद्ध दर्शन के क्षणिकवाद, विज्ञानवाद, शून्यवाद को ही मुख्य रूप से अपनी समालोचना का विषय बनाया है। किन्तु हरिभद्र के अनुसार क्षणिकवाद, विज्ञानवाद, शून्यवाद मूलतः बाह्यार्थों के प्रति रही हुई व्यक्ति की तृष्णा के उच्छेद के लिए हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001787
Book TitleJain Dharma Darshan evam Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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