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________________ विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता : जैन साहित्य के सन्दर्भ में : १४१ चुका है। दूसरी कृति के कर्ता तपागच्छ के मुनि सुन्दरसूरि के शिष्य शुभशील बताये गये हैं। इसका रचनाकाल वि०सं० १४९० है। (१२) पूर्णचन्द्रसूरि के द्वारा रचित 'विक्रमादित्य पञ्चदण्ड-प्रबन्ध' नामक एक अन्यकृति का उल्लेख भी 'जिनरत्नकोश' में हुआ है। यह एक लघु कृति है इसके ग्रन्थांक ४०० हैं। (१३) 'विक्रमादित्य धर्मलाभादि प्रबन्ध' के कर्ता मेरूतुंगसूरि बताये गये हैं। इसके भी कान्तिविजय भण्डार, बड़ौदा में होने की सूचना प्राप्त होती है। (१४) जिनरत्नकोश में विद्यापति के 'विक्रमादित्य प्रबन्ध' की सूचना भी प्राप्त है। उसमें इस कृति के सम्बन्ध में विशेष निर्देश उपलब्ध नहीं होते हैं। (१५) 'विक्रमार्क विजय नामक एक कृति भी प्राप्त होती है। इसके लेखक के रूप में 'गुणार्णव' का उल्लेख हुआ है। इस प्रकार जैन भण्डारों से विक्रमादित्य से सम्बन्धित पन्द्रह से अधिक कृतियों के होने की सूचना प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त मरुगुर्जर और पुरानी हिन्दी में भी विक्रमादित्य पर कृतियों की रचना हुई है। इसमें तपागच्छ के हर्षविमल ने वि०सं० १६१० के आस-पास 'विक्रम रास' की रचना की थी। इसी प्रकार उदयभानु ने वि०सं० १५६५ में 'विक्रमसेन रास' की रचना की। प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर में भी विक्रमादित्य की चौपाई की अपूर्ण प्रति उपलब्ध है। इस प्रकार जैनाचार्यों ने प्राकृत संस्कृत, मरुगुर्जर और पुरानी हिन्दी में विक्रमादित्य पर अनेक कृतियों की रचना की है-ऐसी अनेकों कृतियों का नायक पूर्णतया काल्पनिक व्यक्ति नहीं माना जा सकता है। * Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001787
Book TitleJain Dharma Darshan evam Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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