SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता : जैन साहित्य के सन्दर्भ में : १३९ दिवाकर से जोड़ा गया है, किन्तु सिद्धसेन दिवाकर के काल को लेकर स्वयं जैन विद्वानों में भी मतभेद है, अधिकांश जैन विद्वान् भी उन्हें चौथी-पाँचवी शती का मानते हैं, किन्तु जहां तक जैन पट्टावलियों का सम्बन्ध है, उनमें सिद्धसेन का काल वीर निर्वाण संवत् ५०० बताया गया है; इस आधार पर विक्रमादित्य और सिद्धसेन की समकालिकता मानी जा सकती है। (१२) मुनि हस्तिमलजी ने इनके अतिरिक्त एक प्रमाण प्राचीन अरबी ग्रन्थ से अरुल ओकूल (पृ० ३१५) का दिया था- जिसमें विकरमतुन के उल्लेखपूर्वक विक्रम की यशोगाथा वर्णित है। इस ग्रन्थ का काल विक्रम संवत् की चौथी-पांचवी शती है। यह हिजरी सन् से १६५ वर्ष पूर्व की घटना है। ___ इस प्रकार विक्रमादित्य (प्रथम) को मात्र काल्पनिक व्यक्ति नहीं कहा जा सकता है। मेरी दृष्टि में गर्दभिल्ल के पुत्र एवं शकशाही से उज्जैनी के शासन पर पुनः अधिकार करने वाले विक्रमादित्य एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व है, इसे नकारा नहीं जा सकता है। उन्होंने मालवगण के सहयोग से उज्जैनी पर अधिकार किया था यही कारण है कि यह प्रान्त आज भी मालव देश कहलाता है। (१३) जैन परम्परा में विक्रमादित्य के चरित्र को लेकर जो विपुल साहित्य रचा गया है, वह भी इस तथ्य की पुष्टि करता है कि किसी न किसी रूप में विक्रमादित्य (प्रथम) का अस्तित्व अवश्य रहा है। विक्रमादित्य के कथानक को लेकर जैन परम्परा में निम्न ग्रन्थ उपलब्ध होते हैंविक्रमचरित्र- यह ग्रन्थ काशहृदगच्छ के देवचन्द्र के शिष्य देवमूर्ति द्वारा लिखा गया है। इसकी एक प्रतिलिपि में प्रतिलिपि लेखन संवत् १४९२ उल्लेखित है, इससे यह सिद्ध होता है यह रचना उसके पूर्व की है। इस ग्रन्थका एक अन्य नाम सिंहासन-द्वात्रिंशिका भी है। इसका ग्रन्थ परिमाण ५३०० है। कृति संस्कृत में है। विक्रमचरित्र नामक एक अन्य कृति भी उपलब्ध है। इसके कर्ता पं० सोमसूरि हैं। ग्रन्थ परिमाण ६००० है। (३) विक्रमचरित्र नामक तीसरी कृति साधुरत्न के शिष्य राजमेरु द्वारा संस्कृत गद्य में लिखी गई है। इसका रचना काल वि०सं० १५७९ है। (२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001787
Book TitleJain Dharma Darshan evam Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy