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________________ विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता : जैन साहित्य के सन्दर्भ में भारतीय इतिहास में अवन्तिकाधिपति विक्रमादित्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। मात्र यही नहीं उनके नाम पर प्रचलित विक्रम संवत् का प्रचलन भी लगभग सम्पूर्ण देश में है। लोकानुश्रुतियों में भी उनका इतिवृत्त बहुचर्चित है। परवर्ती काल के शताधिक ग्रन्थों में उनका इतिवृत्त उल्लेखित है। फिर भी उनकी ऐतिहासिकता को लेकर इतिहासज्ञ आज भी किसी निर्णयात्मक स्थिति में नहीं पहुँच पा रहे हैं। इसके कुछ कारण हैं- प्रथम तो यह कि विक्रमादित्य विरुद के धारक अनेक राजा हुए हैं अत: उनमें से कौन विक्रम संवत् का प्रवर्तक है, यह निर्णय करना कठिन है क्योंकि वे सभी ईसा की चौथी शताब्दी के या उसके भी परवर्ती हैं। दूसरे विक्रमादित्य मात्र उनका एक विरुद है, वास्तविक नाम नहीं है। दूसरे विक्रम संवत् के प्रवर्तक विक्रमादित्य का कोई भी अभिलेखीय साक्ष्य ९ वीं शती से पूर्व का नहीं है विक्रम संवत् के स्पष्ट उल्लेख पूर्वक जो अभिलेखीय साक्ष्य है वह ई० सन् ८४१ (विक्रम संवत् ८९८) का है। उसके पूर्व के अभिलेखों में यह कृत् संवत् या मालव संवत् के नाम से ही उल्लेखित है। तीसरे विक्रमादित्य के जो नवरत्न माने जाते हैं, वे भी ऐतिहासिक दृष्टि से विभिन्न कालों के व्यक्ति हैं। विक्रमादित्य के नाम का उल्लेख करने वाली हाल की गाथासप्तशती की एक गाथा को छोड़कर कोई भी साहित्यिक साक्ष्य नौवीं-दसवीं शती के पूर्व का नहीं है। विक्रमादित्य के जीवनवृत्त का उल्लेख करने वाले शताधिक ग्रन्थ हैं, जिनमें पचास से अधिक कृतियां तो जैनाचार्यों द्वारा रचित हैं उनमें कुछ ग्रन्थ को छोड़कर लगभग सभी बारहवीं-तेरहवीं शती के या उससे भी परवर्ती काल के हैं। यही कारण है कि इतिहास उनके अस्तित्व के सम्बन्ध में संदिग्ध है। किन्तु जैन स्रोतों में विक्रमादित्य के सम्बन्ध में जो सूचनाएं उपलब्ध हैं, उनकी विश्वसनीयता को पूरी तरह नकारा भी नहीं जा सकता है। यह सत्य है कि जैनागमों में विक्रमादित्य सम्बन्धी कोई भी उल्लेख उपलब्ध नहीं है। जैन साहित्य में विक्रम संवत् प्रवर्तक विक्रमादित्य का सम्बन्ध दो कथानकों से जोड़ा जाता है - प्रथम तो कालकाचार्य की कथा से और दूसरा सिद्धसेन दिवाकर के कथानक से। इसके अतिरिक्त कुछ पट्टावलियों में भी विक्रमादित्य का उल्लेख है। उनमें यह बताया गया है कि महावीर के निर्वाण के ४७० वर्ष पश्चात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001787
Book TitleJain Dharma Darshan evam Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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