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________________ १३४ अर्थात् पेट के लिए जितना आवश्यक है उतने पर ही व्यक्ति का अधिकार है जो इससे अधिक पर अपना अधिकार जमाता है वह 'चोर' है। ___ जैन दर्शन इससे भी एक कदम आगे बढ़ कर कहता है-जो धन, सम्पत्ति आदि पर पदार्थ हैं, उन पर हमारा कोई स्वामित्व हो ही नहीं सकता। 'पर' को अपना मानना उस पर मालिकाना हक जताना मिथ्यादृष्टि है। अधिकतम हमें आवश्यकतानुरूप उनके 'उपयोग का अधिकार है,स्वामित्व का अधिकार नहीं है (We haveonly use right of them, not the ownership) दूसरे यह भी कहा जाता है कि यदि पर-पदार्थों के प्रति आसक्ति यारागभाव नहीं होगा- उदासीनवृत्ति होगी तो फिर जीवन में सक्रियता समाप्त हो जायेगी, व्यक्ति अकर्मण्य बन जायेगा, क्योंकि रागात्मकता या ममत्त्ववृत्ति या स्वामित्व की भावना ही व्यक्ति को सक्रिय बनाती है। इसके उत्तर में जैन जीवनदृष्टि एक सूत्र देती है कि - कर्तव्यबुद्धि (Sense of duty) से जीओन कि ममत्त्वबुद्धि (Sense of attachment) से। इस सम्बन्ध में जैन परम्परा में निम्न दोहा प्रचलित है - जो उसकी जीवन-दृष्टि को स्पष्ट कर देता है - सम्यक् दृष्टि जीवड़ा करे कुटुम्ब परिपाल। अन्तरसूंन्यारो रहे, ज्यूं धाया खिलावेबाल।। इस कथन का सार यह है 'कर्तव्यबुद्धि से जीवन जीओ, ममत्व से नहीं।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001787
Book TitleJain Dharma Darshan evam Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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