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________________ १३२ सकते हैं किन्तु वे दोनों अपने-अपने कोणों से तो सत्य ही हैं। इसे ही स्पष्ट करते हुए सूत्रकृतांगसूत्र में भगवान महावीर ने कहा है कि जो लोग अपने मत की प्रशंसा करते हैं और अपने विरोधी के मत की निंदा करते हैं, उससे गर्दा करते हैं, वे वस्तुतः सत्य को विद्रूपित करते हैं, वे कभी भी जन्ममरण के इस चक्र से मुक्त नहीं हो सकते हैं। सत्य सर्वत्र प्रकाशित है, जो भी आग्रह या दुराग्रह के घेरे से उन्मुक्त होकर उसे देख पाता है, वही उसे पा सकता है। दुराग्रह या राग-द्वेष के रंगीन चश्मे पहन कर हम सत्य का साक्षात्कार नहीं कर सकते हैं। सत्य का साक्षात्कार करने के लिए एक उन्मुक्त दृष्टि का विकास आवश्यक है, सत्य मेरे या पराये के घेरे में आबद्ध नहीं है। जैन आचार्य हरिभद्र ने कहा था मुझे न महावीर के वचनों के प्रति पक्षाग्रह है और कपिल आदि के प्रति द्वेष है। जो युक्ति संगत है, समुचित है वही मुझे मान्य है। वस्तुतः पक्षों का आग्रही है वह सत्य का आग्रही नहीं हो सकता है। पक्षाग्रह एक प्रकार का राग ही है, यह सत्य को सीमित और विद्रूपित करता है। पक्षाग्रह से ही विवादों का जन्म होता है, उसके कारण ही सामाजिक जीवन में संघर्ष उत्पन्न होते हैं। वह विग्रह, विषाद और वैमनस्य के बीजों का वपन करता है। अत: जीवन में अनाग्रही उदार दृष्टिकोण का विकास आवश्यक है। व्यावहारिक समाज-दर्शन के क्षेत्र में जैन जीवन का तीसरा सूत्र है - अनासक्त, किन्तु कर्तव्यनिष्ठ जीवन शैली का विकास। जैन दर्शन की मान्यता है कि आसक्ति या तृष्णा ही समस्त दुःखों का मूल है। तृष्णा, भोगासक्ति, इच्छा या आकांक्षा और अपेक्षा से ही तनावों का जन्म होता है, ये तनाव प्रथमतया व्यक्ति को उद्वेलित करते हैं, उद्वेलित या विक्षुब्ध व्यक्ति अपने व्यवहार से परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व को विक्षुब्ध बनाता है। दूसरे शब्दों में तृष्णा या आसक्ति न केवल वैयक्तिक जीवन की शान्ति भंग करती है, अपितु यह वैश्विक अशांति का भी मूल कारण है। इसलिए आचारांगसूत्र में कहा गया है कि जहाँ-जहाँ ममत्ववृत्ति है, वहाँ-वहाँ दुःख है ही। यह ममत्ववृत्ति (मेरेपन का भाव) ही, तृष्णा ही भोगासक्ति को जन्म देती है। भोगासक्ति से भोगेच्छा का जन्म होता है और यहीं से आकांक्षा और अपेक्षाओं का सृजन होता है। इसी के परिणामस्वरूप आज मानव प्रकृति के साथ सम्वाद संस्थापित कर जीने के सामान्य नियम भूलकर भोगवाद के एक विकृत मार्ग पर जा रहा है। आज हमने जिस उपभोक्तावादी संस्कृति का विकास किया है वही एक दिन मानव जाति की संहारक सिद्ध होगी। __ जैन विचारकों का कहना है कि आसक्ति या भोगासक्ति से जन्मी इस उपभोक्तावादी संस्कृति के तीन दुष्परिणाम होते हैं- १ अपहरण (शोषण) २ प्रकृति के विरुद्ध भोग की प्रवृत्ति और ३ संग्रह या परिग्रह (संचयवृत्ति)। यद्यपि इन तीनों दुष्परिणामों से बचने के लिए जैन आचारशास्त्र में तीन व्रतों की व्यवस्था की गई है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001787
Book TitleJain Dharma Darshan evam Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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