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________________ जैन जीवन-दृष्टि : १३१ आज जीवन के सभी रूपों के प्रति सम्मान रूप अहिंसा और अभय के सिद्धान्त ही ऐसे हैं, जो उसके अस्तित्व को सुरक्षित रख सकते हैं। आज संसार के सभी प्राणियों को आत्मवत मानकर जीवन के सभी रूपों को, चाहे वे सुविकसित हों या अविकसित हों सम्मान देने की आवश्यकता है। साथ ही इस दृढनिष्ठा की आवश्यकता है कि प्राणीय-जीवन के सहयोगी तत्त्वों, भूमि, जल, वायु और वनस्पति को तथा क्षुद्र जीवधारियों के विनाश करने या उन्हें प्रदूषित करने का हमें कोई अधिकार नहीं है। यही अहिंसा की प्रासंगिकता है। संक्षेप में कहें तो अहिंसा -- एक दूसरे के सहयोग पूर्वक लोकमंगल करते हुए जीवन जीने की एक पद्धति है। अहिंसा केवल 'जीओ और जीने दो' के नारे तक ही सीमित नहीं है, अहिंसा का आदर्श है दसरों के लिए जीयो, अपने क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर उठकर दूसरों का हित-साधन करते हुए जीओ। अहिंसा संकीर्णता की भावना से ऊपर उठकर कर्तव्यबुद्धि से लोकहित करते हुए जीने का संदेश देती है। अनेकांतवाद, अर्थात् दूसरों के विचारों या मान्यताओं के प्रति सम्मान का भाव (Respect of other's Idealogy and Faiths) जैन जीवन-दृष्टि का दूसरा महत्त्वपूर्ण सूत्र है - दूसरों के विचारों, मान्यताओं एवं सिद्धान्तों के प्रति समादर या सम्मान का भाव रखना तथा अपने से विरोधी विचारधाराओं और मान्यताओं में भी अपेक्षा भेद से सत्यता हो सकती है, इसे स्वीकार करना। जैन दर्शन यह मानता है कि सामान्यतया हमारा ज्ञान सीमित और सापेक्ष है, क्योंकि हमारे ज्ञान के साधन के रूप में हमारी इन्द्रियों का ग्रहण-सामर्थ्य सीमित और सापेक्ष है। दूसरे जिस भाषा के माध्यम से हम अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्ति देते हैं, वह सीमित और सापेक्ष है। हमारी घ्राणेन्द्रिय का सामर्थ्य तो चींटी से बहुत कम है और हमारी भाषा अनुभूत गुड़ के स्वाद को भी अभिव्यक्ति देने में कमजोर पड़ जाती है, अतः सीमित और सापेक्ष ज्ञान वाले व्यक्ति को यह अधिकार नहीं है कि वह दूसरों की अनुभूतियों, मान्यताओं और विश्वासों को पूर्णतया असत्य या मिथ्या कहकर नकार दे। मेरा ज्ञान और मेरे विरोधी विचारधारा वाले व्यक्ति का ज्ञान या विश्वास भी अपेक्षा भेद से सत्य हो सकता है, यह जैन दर्शन के अनेकांतवाद का मुख्य आधार है। अनेकांतवाद एक अनाग्रही दृष्टि का विकास करता है। वह दूसरों के विचारों, भावनाओं और धार्मिक या दार्शनिक मान्यताओं के प्रति एक सहिष्णु दृष्टि प्रदान करता है, वह वैचारिक अहिंसा है। वह यह मानता है कि सत्य का सूरज जिस प्रकार मेरे आंगन को प्रकाशित करता है, वैसे ही वह मेरे विरोधी के आंगन को भी प्रकाशित कर.. सकता है। एक ही वस्तु के दो विरोधी कोणों से लिए गये चित्र एक-दूसरे से भिन्न हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001787
Book TitleJain Dharma Darshan evam Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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