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________________ जैन कथा-साहित्य:एक समीक्षात्मक सर्वेक्षण : ११९ प्रथम कालखण्ड में मुख्यतः अर्धमागधी प्राचीन आगमों की कथाएँ आती हैंये कथाएँ मुख्यत: आध्यात्मिक उपदेशों से सम्बन्धित हैं और अर्धमागधी प्राकृत में लिखी गई हैं। दूसरे ये कथाएँ संक्षिप्त और रूपक के रूप में लिखी गई हैं। जैसेआचारांगसूत्र में शैवाल छिद्र और कछुवे द्वारा चाँदनी दर्शन के रूपक द्वारा सद्धर्म और मानव जीवन की दुर्लभता का संकेत है। सूत्रकृतांगसूत्र में श्वेतकमल के रूपक से अनासक्त व्यक्ति द्वारा मोक्ष की उपलब्धि का संकेत है। स्थानांगसूत्र में वृक्षों, फलों आदि के विविध रूपकों द्वारा मानव-व्यक्तित्व के विभिन्न प्रकारों को समझाया गया है। समवायांगसूत्र के परिशिष्ट में चौबीस तीर्थंकरों के कथासूत्रों का नाम-निर्देश है। इसी प्रकार भगवती में अनेक कथा रूप संवादों के माध्यम से दार्शनिक समस्याओं का निराकरण किया गया है। इसके अतिरिक्त आचारांगसूत्र के दोनों श्रुतस्कन्धों के अन्तिम भागों में, सूत्रकृतांगसूत्र के षष्ठ अध्ययन में और भगवती में महावीर के जीवनवृत्त के कुछ अंशों को उल्लेखित किया गया है। इनके कल्पसूत्र और उसकी टीकाओं के साथ तुलनात्मक अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि महावीर के जीवन के कथानकों में अतिशयों का प्रवेश कैसे-कैसे हुआ है। जैन कथा-साहित्य की अपेक्षा से ज्ञाताधर्मकथा की कथाएँ अति महत्त्वपूर्ण हैं, इसमें संक्षेप रूप से अनेक कथाएँ वर्णित हैं। प्रथम मेघकुमार नामक अध्ययन में वर्तमान मुनि जीवन के कष्ट अल्प हैं और उपलब्धियाँ अधिक हैं, यह बात समझायी गयी है। दूसरे अध्ययन में धन्ना सेठ द्वारा विजय चोर को दिये गये सहयोग के माध्यम से अपवाद में अकरणीय करणीय हो जाता है, यह समझाया गया है। इसी प्रकार इसके सातवें अध्ययन में यह समझाया गया है कि योग्यता के आधार पर दायित्वों का विभाजन करना चाहिये। मयूरी के अण्डे के कथानक से समझाया गया है कि अश्रद्धा का क्या दुष्परिणाम होता है। मल्ली के कथानक में स्वर्णप्रतिमा के माध्यम से शरीर की अशुचिता को समझाया गया है। कछुवे के कथानक के माध्यम से संयमी जीवन की सुरक्षा के लिए विषयों के प्रति उन्मुख इन्द्रियों के संयम की महत्ता को बताया गया है। उपासकदशा में श्रावकों के कथानकों के माध्यम से न केवल श्रावकाचार को स्पष्ट किया गया है, अपितु साधना के क्षेत्र में उपसर्गों में विचलित रहने का संकेत भी दिया गया है। अंतकृत्दशा, औपपातिकदशा में विविध प्रकार की तप साधनाओं के स्वरूप को और उनके सुपरिणामों को तथा दुराचार के दुष्परिणामों को समझाया गया है। उपांग साहित्य में रायपसेणियसुत्त में अनेक रूपकों के माध्यम से आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध किया गया है। इसी प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र, दशवैकालिकसूत्र आदि में भी उपदेशप्रद कुछ कथानक वर्णित हैं। नन्दीसूत्र में औपपातिकी बुद्धि के अन्तर्गत रोहक की १४ और अन्य २६ ऐसी कुल ४० कथाओं, वैनियकी बुद्धि की १५, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001787
Book TitleJain Dharma Darshan evam Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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