SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'नवदिगम्बर सम्प्रदाय' की कल्पना कितनी समीचीन? : १०९ था। इस प्रश्न को लेकर दिगम्बर विद्वानों में ही काफी ऊहापोह भी मचा था। षटखण्डागम की धवला टीका के प्रकाशित प्रथम संस्करण में तथा ताम्र पत्रों में वह शब्द आज भी नहीं है, किन्तु दूसरे संस्करण में फिर उसे जोड़ा गया। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि के ज्ञानपीठ संस्करण में पूर्व के संस्करण के अनेक पदों को परिवर्तित कर दिया गया। मेरी दृष्टि में ऐसी घटना यहाँ भी घटित हुई है और कैकयी का निर्वाण सम्बन्धी अंश हटा दिया गया है। फिर भी इस ग्रन्थ के इसी पर्व में इसके यापनीय होने के अनेक तथ्य आज भी उपस्थित हैं, जैसे दिगम्बर परम्परा में आर्यिकाओं को कभी भी मुनि के समकक्ष नहीं माना गया। जबकि स्वयं कैकयी सम्बन्धी छियासीवें पर्व के अन्त में उपसंहार रूप जो तीन श्लोक दिए गए हैं उनमें स्पष्ट रूप से यह उल्लेख है कि 'कैकयी ने गृहस्थ धर्म रूपी जाल का त्याग करके सर्वश्रेष्ठ आर्यिका धर्म को प्राप्त किया।' मात्र यही नहीं इन श्लोकों में आगे यह भी कहा गया है कि मुक्ति रूपी धन को प्राप्त करके या परिग्रह से मुक्त हो कर वह अर्थात् कैकयी चन्द्रमा की चाँदनी के समान कलंकहीन शोभित हुई, यहाँ पर दो संकेत हैं, एक उसकी मुक्ति का और दूसरा उसके द्वारा सर्वपरिग्रह के त्याग का-जबकि ये दोनों ही बातें तो उनके तथाकथित नवदिगम्बर सम्प्रदाय को भी मान्य नहीं होंगी। आगे उन श्लोकों में यह कहा गया है कि इधर जहाँ भिक्षुओं का संघ था, वहीं अन्य स्थान पर प्रभायुक्त आर्यिकाओं का समूह भी एकत्रित था। इस प्रकार वह सभा मुनि एवं साध्वी रूपी अनेक कमलों से सुशोभित थी। साथ ही वहाँ व्रत एवं क्रिया से समन्वित पवित्र चित्त वाले अनेक पुरुष भी थे। वस्तुतः ज्ञानरूपी सूर्य के उदय होने पर किस भव्यजन की मुक्ति नहीं होती? अर्थात् होती है। इस प्रकार इसी पर्व में स्त्री और गृही मुक्ति का अव्यक्त संकेत तो आज भी उपस्थित है। अतः रविषेण के पद्मचरित के यापनीय होने में कोई संदेह नहीं रह जाता है। डॉ० हम्पा नागराजैय्या ने श्री विजय (८६५) और पौन (९६५) की अनुपलब्ध राम कथाओं का उल्लेख किया है, किंतु जब ये ग्रन्थ आज उपलब्ध ही नहीं हैं, तो इनके सम्बन्ध में यह कहना कठिन है कि वे यापनीय थे या नवदिगम्बर। यहाँ तक श्वेताम्बर आचार्य उद्योतनसूरि द्वारा अपनी पूर्वज परम्परा के विमलसूरि और यापनीय रविषेण का स्मरण करने से भी यही सूचित होता है कि रविषेण यापनीय हैं, क्योंकि श्वेताम्बरों के यापनीयों से स्नेह सम्बन्ध रहे हैं। इसके पश्चात् डॉ० नागराजैय्या ने हरिवंशपुराण के कर्ता पुन्नाट जिनसेन को नवदिगम्बर परम्परा का बताने का प्रयत्न किया है। उन्होंने यह तो स्वीकार किया है कि हरिवंशपुराण के कथानक अनेक संदर्भो में दिगम्बर परम्परा से भिन्न हैं, फिर भी वे उन्हें यापनीय न मानकर नवदिगम्बर कहना चाहते हैं। वे अपने मत की पुष्टि में कहना चाहते है कि हरिवंशपुराण में स्त्रीमुक्ति और केवलमुक्ति का उल्लेख नहीं है, अतः वे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001787
Book TitleJain Dharma Darshan evam Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy