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________________ १०८ का उल्लेख नहीं किया है, इसलिए वे यापनीय न होकर नवदिगम्बर हैं।' किन्तु मात्र कैकयी के निर्वाण का उल्लेख नहीं करने से वे नवदिगम्बर नहीं हो जाते हैं, पद्मचरित्र में ऐसे अनेकों तथ्य हैं जो रविषेण को यापनीय सिद्ध करते है। जब हम पउमचरियं और पद्मचरित्र का तुलनात्मक अध्ययन करते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि रविषेण का पद्मचरित्र विमलसूरि के पउमचरियं का प्रायः संस्कृत रूपांतरण मात्र है। यदि प्रो० नागराजैय्या विमलसूरि को यापनीय मानते हैं तो फिर उनकी रामकथा का अनुसरण करने वाला भी यापनीय होना चाहिए। मात्र यही नहीं रविषेण ने अनेक स्थानों पर यापनीयों के समान आर्यिकाओं को मुनि के समतुल्य माना है न कि दिगम्बर परम्परा के समान उपचार चारित्र वाली या पंचमहाव्रत रूप चारित्र ग्रहण के अयोग्य। दूसरे सामान्यतया जहाँ भी उन्होंने किसी पुरुष या स्त्री की दीक्षा का उल्लेख किया है वहाँ उन्होंने उसके स्वर्ग या निर्वाण प्राप्त करने का भी स्पष्ट रूप से उल्लेख किया, किन्तु पद्मपुराण के उपलब्ध संस्करण में कैकयी के सन्दर्भ में उनके तीन सौ स्त्रियों के साथ दीक्षा ग्रहण का उल्लेख करने के बाद सम्यक्त्वं धारयन्ति सुनिर्मलं' इतना कह करके सर्ग समाप्त कर दिया गया है। दूसरे यहाँ 'धारयन्ति' क्रिया पद का प्रयोग बहुवचन में हुआ है, अत: इसका सम्बन्ध सभी तीन सौ स्त्रियों के साथ है, मात्र कैकयी के साथ नहीं है। यह छियासीवाँ पर्व न तो कैकयी के स्वर्गगमन का उल्लेख करता है और न निर्वाण का। शरीरान्त के बाद उसका क्या हुआ? यह भी यहाँ नहीं बताया गया है। जबकि भरत के प्रसंग में उसकी दीक्षा के साथ उसके निर्वाण का भी उल्लेख हुआ है। इसी प्रकार जब सीता की दीक्षा का उल्लेख हुआ है तो उनके भी स्वर्गगमन का उल्लेख हुआ है, तो फिर रविषेण ने यहां दीक्षा ग्रहण के बाद कैकयी का क्या हुआ इसका कोई उल्लेख क्यों नहीं किया? यदि निर्वाण का उल्लेख नहीं करना था तो कम से कम उनके स्वर्गप्राप्ति का तो उल्लेख अवश्य करना था। यहाँ यदि रविषेण मौन हैं, तो इसका क्या अर्थ लिया जाए? क्योंकि यदि प्रो० नागराजैय्या के अनुसार वे नवदिगम्बर हैं और स्त्रीमुक्ति नहीं मानते हैं, तो फिर उन्हें कैकयी के स्वर्गप्राप्ति का उल्लेख तो करना ही था। यहाँ मुझे तो ऐसा लगता है कि परवर्ती प्रतिलिपिकरों या सम्पादकों ने दिगम्बर परम्परा की पुष्टि के लिए वहाँ से उसके निर्वाण प्राप्ति की बात को हटाकर 'सम्यक्त्वं धारयन्ति सनिर्मलं' ऐसा श्लोकांश जोड दिया है अथवा उसके पश्चात् उसके निर्वाण प्राप्ति के उल्लेख वाला जो एक श्लोक रहा होगा उसे ही वहां से हटा दिया है, क्योंकि इस प्रकार की प्रवृत्ति मध्ययुगीन एवं समकालीन साम्प्रदायिक आग्रह वाले विद्वत्जनों की रही है। यह तो एक सुज्ञात तथ्य है कि षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड के ९३ वें सूत्र में जो 'संजद' पद था उसे वहां से हटा दिया गया, क्योंकि वह स्त्रीमुक्ति का समर्थक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001787
Book TitleJain Dharma Darshan evam Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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