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________________ Ādhunika Jaina Samāja Ki Sāmājika Paristhiti 267 शाखायें हैं। ये सब भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय परस्पर भोजन तथा कन्या-व्यवहार का प्रायः खुल्लमखुल्ला विरोध प्रदर्शित करते हैं। उपर्युक्त वस्तुस्थिति तथा आचरण का परिणाम यह हुआ कि जिन समुदायों में परस्पर भोजन तथा कन्या-व्यवहार की छूट थी वे मंडलियाँ उपर्युक्त भेदों के कारण प्रतिदिन घटती गईं। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण यह है कि बीसा श्रीमालादि बड़ी ज्ञातियों में विवाहयोग्य समस्त युवकों के लिये कुन्या कैसे प्राप्त करना, यह एक कठिन कार्य हो गया और अब भी है। गुजरात, काठियावाड़ के कई एक स्थानों में ऐसी भी परिस्थिति उत्पन्न हुई है कि एक बीसा श्रीमाल श्वेताम्बर मूर्तिपूजक, यदि अपनी कन्या का विवाह उसी गाँव के श्वेताम्बर स्थानकवासी बीसा श्रीमाल के साथ करता है तो वह मनुष्य संघबाहिर करने का पात्र होता है और वेलावल का कोई श्वेताम्बर मूर्तिपूजक दस्सा ओसवाल, यदि बलानिवासी श्वेताम्बर पूजक दस्सा ओसवाल के साथ अपनी पुत्री का विवाह करे तो वह मनुष्य भी बड़ा दोषी माना जाता है। भारतवर्ष में लग्नयोग्य कन्याओं की बड़ी भारी वटि है। इस विषय में नाना प्रकार के सबल कारण मालूम होते हैं। उनमें से मुख्य कारण कुछ यही प्रतीत होते हैं कि एक तो कई समाजों में विधवा स्त्री का पुनर्लग्न करने का निषेध है और विधुर लोगों के लिये पुनर्लग्नसम्बन्धी प्रतिपेक्ष के अभाव से वे लोग बारम्बार पुनर्लग्न करते हैं। दूसरे भारतीय स्त्रियाँ कम अवस्था में ही मृत्यु के मुख में प्रवेश करती हैं, जिसका कारण यह है कि प्रसूति के समय उनके आरोग्य सम्बन्धी साधनों का अभाव होता है, तथा बाल्यकाल में विवाह हो जाने के कारण उनके शरीर दुर्बल और रोगी बन जाते हैं। तीसरे कई एक गोत्रों में समर्पण सम्बन्धी अमुक नियमों के कारण से लग्न नहीं हो सकता है। उक्त कारणों से स्त्रियों की क्षति होने पर कन्या-विक्रय जैसे दुष्ट हानिकारक रिवाज प्रचलित हुए हैं। अपनी-अपनी मंडली (Circle) की लग्न करने योग्य वैश्य जैन कन्याएँ अपने-अपने नगरवासी लोगों के अतिरिक्त किसी भी अन्य नागरिक को न दी जाय। यदि प्रत्येक प्रतिवासी मनुष्य इस नियम पर कटिबद्ध हो जाए तो अपने नगर व प्रतिवासी अशिक्षित एवं साधारण वर्ग को भी कन्यायें उपलब्ध हो सकें। ऐसे विचार अर्थात् कन्याएँ अपनी मंडली के बाहर जाने नहीं देने का इरादा इस बात का कारण बना कि उपर्युक्त जाति-नियम अतीव कठोर बन गए। इसका प्रमाण यह भी है कि ये सब नियम मात्र देने के वास्ते ही किये जाते हैं जब कि स्वज्ञातिय कन्या मण्डली के बाहर से लाने में भी संकोच नहीं होता है। मेरे उपर्युक्त उल्लेखानुसार कई एक प्राचीन जैन ज्ञातियों के मनुष्यों ने जैनधर्म छोड़ कर वैष्णवधर्म स्वीकार किया। इसी कारण से जैन जाति प्रति दिवस कम होती गई। इसी सबब से बहुत सी जातियों में जैनविभाग तथा वैष्णवविभाग, इस प्रकार दो पक्ष पड़ गये। इन दोनों विभागों में परस्पर भोजन तथा कन्या-व्यवहार प्रायः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001785
Book TitleCharlotte Krause her Life and Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages674
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_English, Biography, & Articles
File Size11 MB
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