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________________ 260 Dr. Charlotte Krause : Her Life & Literature दूसरी ओर, प्रस्तुत विषय उन ग्रन्थकारों की दृष्टि से गौण और प्रसंगोपात्त ही था, जिससे उन्होंने श्री जिनप्रभ सूरि की भाँति, विशेष अन्वेषण करना आवश्यक ही नहीं समझा होगा। यदि अति प्राचीन समय में - अर्थात् श्री जिनदास गणि और श्री हरिभद्र सूरि के पहले श्वेताम्बर-परम्परा के किसी लेखक या उपदेशक की भूल से 'महाकालवन का जैन-मन्दिर' 'महाकाल जैन-मन्दिर' में परिवर्तित हुआ और इस भ्रान्त निर्देश से महाकाल मन्दिर के जैन मन्दिर से उत्पन्न होने की और भी भ्रान्त कल्पना उपस्थित हुई, जो परम्परागत इतने ग्रन्थों में क्रमशः प्रविष्ट होती गई, तो यह बात आश्चर्यकारक नहीं है। वह इस कारण से स्वाभाविक ही समझी जा सकती है कि स्वधर्मपरायण प्राचीन श्वेताम्बर-वृद्ध-परम्परा ने, सूक्ष्म ऐतिहासिक खोज को अपना कर्तव्य नहीं समझकर, ऐसी भ्रान्तियों को शुद्ध करने की तरफ उदासीनता रखी है। इसके अतिरिक्त, खोज के साधनों के अभाव से भी व्यक्तिगत ग्रन्थकारों को अपने-अपने मूलग्रन्थों पर बहुधा अन्धविश्वास रखना ही पड़ता था। इसके परिणामस्वरूप गुप्तकालीन सिद्धसेन दिवाकर द्वारा संवत्सर प्रवर्तक विक्रमादित्य का प्रतिबोधित होना आदि विचित्र भ्रान्तियाँ भी अशोधित रहकर शताब्दियों के क्रम से जैन साहित्य का सर्वमान्य सिद्धान्त बन सकीं। ऐसी एक भ्रान्ति-स्वरूप श्री अवन्तिसुकुमाल के स्मारक मन्दिर में से महाकालेश्वर मन्दिर का उत्पन्न होना भी समझा जा सकता है। साथ ही साथ यह भी ध्यान में रखने योग्य है कि प्रस्तुत घटनाओं की रंगभूमि, प्राचीन उज्जयिनी, जैन धर्म का एक महिमायुक्त केन्द्र-स्थान था। इतिहासप्रसिद्ध जैन राजा सम्प्रति, जिनकी आज्ञा से कराई हुई जिन-प्रतिमाओं और जैन मन्दिरों की संख्या से आश्चर्य होता है, और कालकाचार्य द्वारा प्रतिबोधित जिनभक्त शक-राजा-मण्डल (जो पश्चात् संवत्सर प्रवर्तक विक्रमादित्य से पराजित बताये गये हैं ) उज्जैन ही में अपनी राजधानी रखते हुए राज्य करते थे। वहाँ ही 'आवश्यकचूर्णि' के अनुसार, उक्त अशोक-पौत्र सम्प्रति के समय में 'जीवित स्वामी' ( अर्थात् किसी एक तीर्थङ्कर के समय में बनाई हुई उनकी एक प्रतिमा ) का एक प्रसिद्ध मन्दिर विद्यमान था, जहाँ दर्शन करने को राजगुरु आर्य सुहस्ती आचार्य 'विहार कर' आए। इस बात के पुरातत्त्व सम्बन्धी प्रमाण भी विद्यमान हैं। श्रीपार्श्वनाथ की शासनदेवी पद्मावती की एक बड़ी, अति प्राचीन कारीगरी की सुन्दर मूर्ति गढ़ की कालिका देवी के मन्दिर में अभी भी विराजमान है। इस मूर्ति के आकार से अनुमान किया जा सकता है कि वह एक समय एक भव्य पार्श्वनाथ-प्रतिमा के पास एक विशाल जिनालय में स्थापित हुई होगी, जिसकी पूजा-सेवा प्रतिदिन सैकड़ों श्रावकश्राविकाएँ करती होंगी। प्राचीन जैन प्रभाव की एक अन्य निशानी वह भव्य, श्याम पाषाणमय पार्श्व-प्रतिमा है जो कुछ समय पहले महाकालवन की भूमि में से निकली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001785
Book TitleCharlotte Krause her Life and Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages674
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_English, Biography, & Articles
File Size11 MB
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