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________________ Jaina Sahitya aur Mahākāla-Mandira नरेश कोई साधारण गुप्त राजा ही नहीं थे, किन्तु वे 'विक्रमादित्य' का उपनाम धारण करने वाले, अर्थात् महाप्रतापी 'परमभागवत' गुप्त सम्राटों में से एक थे। ऐसे एक महान् गुप्त सम्राट् के हाथ से इस प्रकार के एक असाधारण कार्य का किया जाना ऐसी अनोखी घटना है कि जिसके साक्षीभूत ( अथवा इसी सम्राट् के हाथ से किए हुए किसी अन्य जैनधर्म-प्रभावना रूपी कार्य के साक्षीभूत ) प्रमाणों का सर्वथा अभाव होते हुए उसको ऐतिहासिक सत्य मानने को कोई इतिहासज्ञ तैयार नहीं हो सकता है। यदि कालिदास का अस्तित्व शुंग -काल में मान लिया जाय, उनके तथा सिद्धसेन के बीच में कुछ शताब्दियाँ बीत भी गई हों, तब यह युक्ति ग्राह्य ठहरती है। उपर्युक्त आपत्ति महाकालेश्वर और कुडंगेश्वर को अभिन्न मानने का फल है। यदि दोनों को अभिन्न समझा जाय तो उसका यह अर्थ होता है कि सिद्धसेन दिवाकर और कालिदास के समय में महाकालवन में एक तो कालिदास द्वारा प्रशंसित वैभवशाली, राजपूजित महाकालेश्वर महादेव का मन्दिर और दूसरा प्रकीर्णकों में उल्लिखित, अवन्तिसुकुमाल के स्मारक मन्दिर में से उत्पन्न हुआ, साधारण श्रेणी का कुडंगेश्वर महादेव का मन्दिर, ऐसे महादेव के दो भिन्न देवालय विद्यमान थे। यदि श्री सिद्धसेन दिवाकर के प्रभाव से जैन - हितैषी बने हुए गुप्त नरेश ने ( कदाचित् द्वितीय चन्द्रगुप्त ही ने ), उस कुडंगेश्वर मन्दिर का इतिहास जानकर और उसमें उपर्युक्त प्राचीन तीर्थङ्कर प्रतिमा प्रकट हुई देखकर, गुप्तवंशीय सम्राटों की इतिहास-प्रसिद्ध उदारता और न्यायप्रियता के अनुसार जैनियों को उक्त मन्दिर वापस दिया हो तो यह कुछ आश्चर्यकारक घटना नहीं थी। फिर भी जैनियों को अपना यह महा - पवित्र और पूज्य स्थान पुनः प्राप्त होने से अत्यन्त सन्तोष हुआ होगा, और प्रख्यात ‘महाकालवन' में आए हुए इस जैन मन्दिर की भलीभाँति प्रसिद्धि हुई होगी। इस कल्पना के स्वीकृत होने से कुडंगेश्वर और महाकालेश्वर की अभिन्नता का निराकरण हो जाता है। इतना ही नहीं, किन्तु उपर्युक्त महान् ग्रन्थकारों का इस आशय का कथन है कि महाकाल मन्दिर अवन्तिसुकुमाल के स्मारक - मन्दिर से उत्पन्न हुआ, वह भी साथ ही साथ अयथार्थ सिद्ध हो जाता है। यद्यपि इतने महापुरुषों का एकमुखी साक्ष्य इस रीति से अयथार्थ ठहर जाना अवश्य चिन्तनीय है, तथापि एक तो दिगम्बर-परम्परा भी उनके उस कथन से विरुद्ध है, क्योंकि ( ऊपर दी हुई अवतरणिका के अनुसार ) श्री नेमिदत्त साफ-साफ महाकाल - तीर्थ का एक 'कुतीर्थ', अर्थात् अन्य-धर्मियों के तीर्थ के रूप में उत्पन्न होना बताते हैं ( जीवहिंसा से हिन्दूमन्दिर ही का अनुमान होता है )। 259 इसके अतिरिक्त, यह भी विदित है कि उक्त ग्रन्थकारों को एक ही समान वृद्ध परम्परा मान्य थी, जिसका प्रारम्भ प्रस्तुत विषय की दृष्टि से श्री जिनदास गणि और श्री हरिभद्र सूरि का सामान्य आधार था। Jain Education International For Private & Personal Use Only 1⁄2 www.jainelibrary.org
SR No.001785
Book TitleCharlotte Krause her Life and Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages674
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_English, Biography, & Articles
File Size11 MB
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