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जैनधर्म की ऐतिहासिक विकास-यात्रा वर्ष पश्चात् पुन: एक नवीन धर्मक्रान्ति की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी। इसी लोकागच्छीय यति परम्परा में से निकल कर जीवराजजी, लवजीऋषिजी, धर्मसिंहजी, धर्मदासजी, मनोहरदासजी, हरजीस्वामीजी आदि ने पुन: एक धर्मक्रान्ति का उद्घोष किया और आगमसम्मत्त मुनि आचार पर विशेष बल दिया, फलत: स्थानकवासी सम्प्रदाय का उदय हुआ। स्थानकवासी परम्परा का उद्भव एवं विकास किसी एक व्यक्ति से एक ही काल में नहीं हआ, अपित विभिन्न व्यक्तियों द्वारा अलग-अलग समय में हुआ। अत: विचार और आचार के क्षेत्र में मतभेद बने रहे। जिसका परिणाम यह हुआ कि यह सम्प्रदाय अपने उदय काल से ही अनेक उप-सम्प्रदायों में विभाजित रहा।
१७वीं शताब्दी में इसी स्थानकवासी सम्प्रदाय से निकल कर रघुनाथजी के शिष्य भीखणजी स्वामी ने श्वेताम्बर तेरापंथ की स्थापना की। इनके स्थानकवासी परम्परा से पृथक् होने के मूलत: दो कारण रहे- एक ओर स्थानकवासी परम्परा के साधुओं ने भी यति परम्परा के समान ही अपनी-अपनी परम्परा के स्थानकों का निर्माण करवाकर उनमें निवास करना प्रारम्भ कर दिया तो दूसरी ओर भीखणजी स्वामी का आग्रह यह रहा कि दया व दान की वे सभी प्रवृत्तियाँ जो सावध हैं और जिनके साथ किसी भी रूप में हिंसा जुड़ी हई है, चाहे वह हिंसा एकेन्द्रिय जीवों की हो, धर्म नहीं मानी जा सकती। कालान्तर में आचार्य भीखणजी का यह सम्प्रदाय पर्याप्त रूप से विकसित हुआ और आज जैनधर्म के एक प्रबुद्ध सम्प्रदाय के रूप में जाना पहचाना जाता है। इसे तेरापंथ के नवें आचार्य तुलसीजी और दसवें आचार्य महाप्रज्ञजी ने नई उचाईंयाँ दी हैं।
स्थानकवासी और तेरापंथ के उदय के पश्चात् क्रमश: वीसवीं शती के पूवार्ध, मध्य और उत्तरार्ध में विकसित जैनधर्म के सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से जो तीन परम्पराएँ अति महत्त्वपूर्ण हैं, उनमें श्रीमद् राजचन्द्र की अध्यात्मप्रधान परम्परा में विकसित 'कविपंथ', स्थानकवासी परम्परा से निकलकर बनारसीदास के दिगम्बर तेरापंथ को नवजीवन देनेवाले कानजीस्वामी का निश्चयनय प्रधान 'कानजी पंथ' तथा गुजरात के ए०एम० पटेल के द्वारा स्थापित दादा भगवान का सम्प्रदाय मुख्य है। यद्यपि ये तीनों सम्प्रदाय मुलत: जैनधर्म की अध्यात्मप्रधान दृष्टि को लेकर ही विकसित हये। श्रीमद् राजचन्द्रजी जिन्हें महात्मा गाँधी ने गुरु का स्थान दिया था, जैनधर्म में किसी सम्प्रदाय की स्थापना की दृष्टि से नहीं, मात्र व्यक्ति के आध्यात्मिक जागरण की अपेक्षा से जनसाधारण को जैनधर्म के अध्यात्म प्रधान सारभूत तत्त्वों का बोध दिया। श्रीमद् राजचन्द्र आध्यात्मिक प्रज्ञासम्पत्र आशु कवि थे। अत: उनका अनुयायी वर्ग कविपंथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कानजीस्वामी कुन्दकुन्द के समयसार आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर बनारसीदास और श्रीमद् राजचन्द्र की अध्यात्म प्रधान दृष्टि को ही जन-जन में प्रसारित करने का प्रयत्न किया, किन्तु जहाँ श्रीमद् राजचन्द्र ने निश्चय और व्यवहार दोनों पर समान बल
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