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________________ ४२ जैनधर्म की ऐतिहासिक विकास-यात्रा एक ओर मन्दिर और मूर्तियों का तोड़ा जाना और देश पर मुस्लिम शासकों का प्रभाव बढ़ना, दूसरी ओर कर्मकाण्ड से मुक्त सहज और सरल इस्लाम धर्म से हिन्द और जैन मानस का प्रभावित होना, जैनधर्म में इन अमूर्तिपूजक धर्म-सम्प्रदायों की उत्पत्ति का किसी सीमा तक कारण माना जा सकता है। लोकाशाह का जन्म वि० सं० १४७५ के आस-पास हुआ। यद्यपि उस काल तक मुस्लिमों का साम्राज्य तो स्थापित नहीं हो सका था, किन्तु देश के अनेक भागों में धीरे-धीरे मुस्लिम शासकों ने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया था। गुजरात भी इससे अछूता नहीं था। इस युग की दूसरी विशेषता यह थी कि अब तक इस देश में स्थापित मुस्लिम शासक साम्राज्य का स्वप्न देखने लगे थे, किन्तु उसके लिए आवश्यक था भारत की हिन्दू प्रजा को अपने विश्वास में लेना। अत: मोहम्मद तुगलक, बाबर, हुमायूँ आदि ने इस्लाम के प्रचार और प्रसार को अपना लक्ष्य रखकर भी हिन्दुओं को प्रशासन में स्थान देना प्रारम्भ किया, फलत: हिन्दु सामन्त और राज्य कर्मचारी राजा के सम्पर्क में आये। फलत: पर कर्मकाण्डमुक्त जाति-पाति के भेद से रहित और भ्रातृ-भाव से पूरित इस्लाम का अच्छा पक्ष भी उनके सामने आया जिसने यह चिन्तन करने पर बाध्य कर दिया कि यदि हिन्दूधर्म या जैनधर्म को बचाये रखना है तो उसको कर्मकाण्ड से मुक्त करना आवश्यक है। इसी के परिणामस्वरूप जैन परम्परा में अमूर्तिपूजक सम्प्रदायों का न केवल उद्भव हुआ, अपितु अनुकूल अवसर को पाकर वह तेजी से विकसित भी हुई। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में स्थानकवासी परम्परा का और दिगम्बर सम्प्रदाय में तारणपंथ के उदय के नेपथ्य में इस्लाम की कर्मकाण्ड मुक्त उपासना-पद्धति का प्रभाव दिखता है। यद्यपि जैनधर्म की पृष्ठभूमि भी कर्मकाण्ड मुक्त ही रही है, अत: यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता है कि इन दो सम्प्रदायों की उत्पत्ति के पीछे मात्र इस्लाम का ही पूर्ण प्रभाव था। ___ परम्परा के अनुसार यह मान्यता है कि लोकाशाह को मुस्लिम शासक ने न केवल अपने खजाञ्ची के रूप में मान्यता दी थी, अपित उनके धार्मिक आन्दोलन को एक मूक स्वीकृति तो प्रदान की ही थी। लोकाशाह का काल मोहम्मद तुगलक की समाप्ति के बाद शेरशाह सूरि और बाबर का सत्ताकाल था। मुस्लिम बादशाह से अपनी आजीविका पाने के साथ-साथ हिन्दू अधिकारी मुस्लिम धर्म और संस्कृति से प्रभावित हो रहे थे। ऐसा लगता है कि अहमदाबाद के मुस्लिम शासक के साथ काम करते हुए उनके धर्म की अच्छाईयों का प्रभाव भी लोकाशाह पर पड़ा। दूसरी ओर उस युग में हिन्दू-धर्म के समान जैनधर्म भी मुख्यत: कर्मकाण्डी हो गया था। धीरे-धीरे उसमें से धर्म का आध्यात्मिक पक्ष विलुप्त होता जा रहा था। चैत्यवासी यति कर्मकाण्ड के नाम पर अपनी आजीविका को सबल बनाने के लिए जनसामान्य का शोषण कर रहे थे। अपनी अक्षरों की सुन्दरता के कारण लोकाशाह को जब प्रतिलिपि करते समय आगम ग्रन्थों के अध्ययन का मौका मिला तो उन्होंने देखा कि आज जैन मुनियों के आचार में भी सिद्धान्त और व्यवहार में बहुत बड़ी खाई आ गयी है। साधकों के जीवन में आयी सिद्धान्त और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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