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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास इसी तरह एक अन्य प्रयत्न वि०सं०१२१४ या १२५० में आगमिकगच्छ एवं तपागच्छ की स्थापना के रूप में हुआ। आगमिकगच्छ ने न केवल चैत्यवास एवं यक्षयक्षी की पूजा का विरोध किया, अपितु सचित्त द्रव्यों से जिन-प्रतिमा की पूजा का भी विरोध किया। यहाँ हम देखते हैं कि दिगम्बर परम्परा में जहाँ बनारसीदास आदि के प्रभाव से लगभग १६ वीं शती में सचित्त द्रव्य से पूजन का विरोध हुआ, वहीं श्वेताम्बर परम्परा में दो शती पूर्व ही इस प्रकार का विरोध जन्म ले चुका था। यद्यपि आगमिकगच्छ अधिक जीवंत नहीं रह पाया और कालक्रम से उसका अन्त भी हो गया, फिर भी खरतरगच्छ, तपागच्छ और अंचलगच्छ अपने प्रभाव के कारण अस्तित्व में बने रहे। किन्तु ये तीनों परम्परायें भी चैत्यवासी-यतिवासी परम्परा से अप्रभावित नहीं रह सकी। जिस संविग्न मुनि परम्परा को पुनर्जीवित करने के लिए जो ये परम्परायें अस्तित्व में आयी थीं, वे अपने उस कार्य में सफल नहीं हो सकी। खरतरगच्छ, अंचलगच्छ और यहाँ तक कि तपागच्छ में भी यतियों का वर्चस्व स्थापित हो गया। मात्र यही नहीं मन्दिर और मूर्ति सम्बन्धी आडम्बर बढ़ता ही गया और श्रमण वर्ग जिसका लक्ष्य आत्म-साधना था, वह इन कर्मकाण्डों का पुरोहित होकर रह गया। तप और त्याग के द्वारा आत्मविशुद्धि का मार्ग मात्र आगमों में ही सीमित रह गया। यथार्थ जीवन से उनका कोई सम्बन्ध नहीं रह पाया। ऐसी स्थिति में पुनः एक समग्र क्रान्ति की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी। चैत्यवास का विरोध और संविग्न सम्प्रदायों का आविर्भाव
जैन परम्परा में परिवर्तन की लहर पुन: सोलहवीं शताब्दी में आयी। जब अध्यात्मप्रधान जैनधर्म का शुद्ध स्वरूप कर्मकाण्ड के घोर आडम्बर के आवरण में धूमिल हो रहा था और मुस्लिम शासकों के मूर्तिभंजक स्वरूप से मूर्तिपूजा के प्रति आस्थाएँ विचलित हो रही थीं, तभी मुसलमानों की आडम्बर रहित सहज धर्म साधना ने हिन्दुओं की भाँति जैनों को भी प्रभावित किया। हिन्दूधर्म में अनेक निर्गुण भक्तिमार्गी सन्तों के आविर्भाव के समान ही जैनधर्म में भी ऐसे सन्तों का आविर्भाव हुआ जिन्होंने धर्म के नाम पर कर्मकाण्ड और आडम्बरयुक्त पूजा-पद्धति का विरोध किया। फलत: जैनधर्म की श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही शाखाओं में सुधारवादी आन्दोलन का प्रादुर्भाव हुआ। इनमें श्वेताम्बर परम्परा में लोकाशाह और दिगम्बर परम्परा में सन्त तारणस्वामी तथा बनारसीदास प्रमुख थे। यद्यपि बनारसीदास जन्मना श्वेताम्बर परम्परा के थे, किन्तु उनका सुधारवादी आन्दोलन दिगम्बर परम्परा से सम्बन्धित था। लोकाशाह ने श्वेताम्बर परम्परा में मूर्तिपूजा तथा धार्मिक कर्मकाण्ड और आडम्बरों का विरोध किया। इनकी परम्परा आगे चलकर लोकागच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुई। इसी से आगे चलकर सत्रहवीं शताब्दी में श्वेताम्बर स्थानकवासी परम्परा विकसित हुई। जिसका पुन: एक विभाजन १८वीं शती में शुद्ध निवृत्तिमार्गी जीवनदृष्टि एवं अहिंसा की निषेधात्मक व्याख्या के आधार पर श्वेताम्बर तेरापंथ के रूप में हुआ।
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