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________________ ४४ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास धर्मक्रान्ति या क्रियोद्धार करना पड़ा। आचार-व्यवस्था को लेकर विशेष रूप से सचेल और अचेल साधना के सन्दर्भ में प्रथम विवाद वी०नि०सं०६०६ या ६०९ तदनुसार विक्रम की प्रथम-द्वितीय शताब्दी में हआ। यह विवाद मुख्यतया आर्य शिवभूति और आर्य कृष्ण के मध्य हआ था। जहाँ आर्य शिवभूति ने अचेल पक्ष को प्रमुखता दी, वहीं आर्य कृष्ण सचेल पक्ष के समर्थक रहे। आर्य शिवभूति की आचार क्रान्ति के परिणामस्वरूप उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में बोटिक या यापनीय परम्परा का विकास हुआ जिसने आगमों और स्त्रीमुक्ति को स्वीकार करते हुये भी यह माना कि साधना का उत्कृष्ट मार्ग तो अचेल धर्म ही है। लोगों के भावनात्मक और आस्थापरक पक्ष को लेकर महावीर के पश्चात् कालान्तर में जैनधर्म में मूर्तिपूजा का विकास हुआ। यद्यपि महावीर के निर्वाण के १५० वर्ष के पश्चात् से ही जैनधर्म में मूर्तिपूजा के प्रमाण मिलने प्रारम्भ हो जाते हैं। लोहानीपुर पटना से मिली जिनप्रतिमाएँ और कंकाली टीला मथुरा से मिली जिनप्रतिमायें इस तथ्य के प्रबल प्रमाण हैं कि ईसा पूर्व ही जैनों में मूर्तिपूजा की परम्परा अस्तित्व में आ गयी थी। यहाँ हम मूर्तिपूजा सम्बन्धी पक्ष-विपक्ष की इस चर्चा में न पड़कर तटस्थ दृष्टि से यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि कालक्रम से जैनधर्म की मूर्तिपूजा में अन्य परम्पराओं के प्रभाव से कैसे-कैसे परिवर्तन हुए और उसका मुनिवर्ग के जीवन पर क्या और कैसा प्रभाव पड़ा? मन्दिर और मूर्तियों के निर्माण के साथ ही जैन साधुओं की आचार शैथिल्य को तेजी से बढ़ावा मिला तथा श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में मठ या चैत्यवासी और वनवासी ऐसी दो परम्पराओं का विकास हुआ। मन्दिर और मूर्ति के निर्माण तथा उसकी व्यवस्था हेतु भूमिदान आदि भी प्राप्त होने लगे और उनके स्वामित्व का प्रश्न भी खड़ा होने लगा। प्रारम्भ में जो दान सम्बन्धी अभिलेख या ताम्र पत्र मिलते हैं उनमें दान मन्दिर, प्रतिमा या संघ को दिया जाता था- ऐसे उल्लेख हैं। लेकिन कालान्तर में आचार्यों के नाम पर दान पत्र लिखे जाने लगे। परिणामस्वरूप मुनिगण न केवल चैत्यवासी बन बैठे अपितु वे मठ, मन्दिर आदि की व्यवस्था से भी जुड़ गये। सम्भवत: यही कारण रहा है कि दान आदि उनके नाम से प्राप्त होने लगे। इस प्रकार मुनि जीवन में सुविधावाद और आचार शैथिल्य का विकास हुआ। आचार शैथिल्य ने श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में अपना आधिपत्य कर लिया। श्वेताम्बर में यह चैत्यवासी यति परम्परा के रूप में और दिगम्बर में मठवासी भट्टारक परम्परा के रूप में विकसित हुई। यद्यपि इस परम्परा ने जैनधर्म एवं संस्कृति को बचाये रखने में तथा जैनविद्या के सरंक्षण और समाज सेवा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य किया। चिकित्सा के क्षेत्र में भी जैन यतियों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा, किन्तु दूसरी ओर सुविधाओं के उपभोग, परिग्रह के संचयन ने उन्हें अपने श्रमण जीवन से च्युत भी कर दिया। इस परम्परा के विरोध में दिगम्बर आचार्य कुन्दकुन्द ने लगभग ६ठी शती में और श्वेताम्बर आचार्य हरिभद्र ने ८वीं शती में क्रान्ति के स्वर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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