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________________ ४२ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास किया ही साथ ही चिकित्सा के माध्यम से जनसेवा के क्षेत्र में भी वे पीछे नहीं रहे। लोकाशाह के पूर्व की धर्मक्रान्तियाँ भारतीय श्रमण परम्परा एक क्रान्तधर्मी परम्परा रही है। उसने सदैव ही स्थापित रूढ़ि एवं अन्धविश्वासों के प्रति क्रान्ति का स्वर मुखर किया है। इसके अनुसार वे परम्परागत धार्मिक रूढ़ियाँ जिनके पीछे कोई सार्थक प्रयोजन निहित नहीं है, धर्म के शव के समान है। शव पूजा या प्रतिष्ठा का विषय नहीं होता बल्कि विसर्जन का विषय होता है, अत: अन्ध और रूढ़िवादी परम्पराओं के प्रति क्रान्ति आवश्यक और अपरिहार्य होती है। श्रमण धर्मों अथवा जैनधर्म का प्रादुर्भाव इसी क्रान्ति दृष्टि के परिणामस्वरूप हुआ है। भगवान् ऋषभदेव ने अपने युग के अनुरूप लौकिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में अपनी व्यवस्थायें दी थी। परवर्ती तीर्थंकरों ने अपने युग और परिस्थिति के अनुरूप उसमें भी परिवर्तन किये। परिवर्तन और संशोधन का यह क्रम महावीर के युग तक चला। भगवान् महावीर ने भगवान् पार्श्वनाथ के धर्ममार्ग और आचार-व्यवस्था में अपने युग के अनुरूप विविध परिवर्तन किये। भगवान् महावीर ने जो आचार-व्यवस्था दी थी उसमें भी देश, काल और व्यक्तिगत परिस्थितियों के कारण कालान्तर में परिवर्तन आवश्यक हुए। फलत: जैनाचार्यों ने महावीर के साधना-मार्ग और आचार-व्यवस्था को उत्सर्ग मार्ग मानते हुये अपवाद मार्ग के रूप में देश कालगत परिस्थितियों के आधार पर नवीन मान्यताओं को स्थान दिया । अपवाद मार्ग की सजना के साथ जो सूविधावाद जैन संघ में प्रविष्ट हआ वह कालान्तर में आचार शैथिल्य का प्रतीक बन गया । उस आचार शैथिल्य के प्रति भी युग-युग में सुविहित मार्ग के समर्थक आचार्यों ने धर्मक्रान्तियाँ या क्रियोद्धार किये। जैनधर्म एक गत्यात्मक धर्म है। अपने मूल तत्त्वों को संरक्षित रखते हुये उसने देश, काल और परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ-साथ अपनी व्यवस्थाओं में भी परिवर्तन स्वीकार किया। अतः विभिन्न परम्पराओं के जैन आचार्यों के द्वारा की गयी धर्मक्रान्तियाँ जैनधर्म के लिए कोई नई बात नहीं थी, अपितु इसकी क्रान्तधर्मी विचारदृष्टि का ही परिणाम था। लोकाशाह के पूर्व भी धर्मक्रान्तियाँ हुई थीं। उन धर्मक्रान्तियों या क्रियोद्धार की घटनाओं का हम संक्षिप्त विवरण यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं जैसाकि पूर्व में संकेत किया गया है कि भगवान महावीर ने भी भगवान् पार्श्वनाथ की आचार-व्यवस्था को यथावत् रूप में स्वीकार नहीं किया था। यह ठीक है कि भगवान् पार्श्वनाथ और भगवान् महावीर की मूलभूत सिद्धान्तों में मौलिक अन्तर न हो, किन्तु उनकी आचार-व्यवस्थायें तो भिन्न-भिन्न रही ही हैं जिनका जैनागमों में अनेक स्थानों पर निर्देश प्राप्त होता है। महावीर की परम्परा में इन दोनों महापुरुषों की आचार-व्यवस्थाओं का समन्वय प्रथमतः सामायिक चारित्र और छेदोपस्थापनीय चारित्र (पञ्चमहाव्रतारोपण) के रूप में हुआ। फलत: मुनि आचार में एक द्विस्तरीय व्यवस्था की गई। भगवान् महावीर Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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