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________________ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास “सुघोसं णगरं, देवरमणं उज्जाणं, वीरसेणो जक्खो।" इति श्री विपाक मध्ये "तेणं कालेणं तेणं समएणं साएयं (साकेतं) णगरे होत्था, उत्तरकुरु उज्जाणे पासमिअ (पार्श्वमृग) जवखो।” इति श्री विपाक मध्ये। एह छप्पनमु बोल। ५७. सतावनमु बोल ___ हवइ सत्तावनमु बोल लिखीइ छइ। तथा केतला एक इम कहई छई जे“अम्हारई वृत्ति, टीका, चूर्णि, नियुक्ति भाष्य सहू प्रमाण।" ते डाहु हुई ते विचारी जोज्यो। जे श्रीसिद्धान्तनइं मिलइ, ते प्रमाण। अनइ जे सिद्धान्त विरुद्ध हुइ ते किम प्रमाण थाइ? । वृत्ति टीका मांहिं एहवा अधिकार छई, ते लिखीइ छइं जे -“साधु चारित्रीओ चक्रवर्ति नां कटक चूर्णिं करइ।" उत्तराध्ययन नी वृत्ति चूर्णि मध्ये। "तथा चारित्रीओ पंचक मांहिं काल करइ तु डाभना पूतलां करवां कह्यां छइं, ते लिखीइ छइ- "दुन्नि अ दिवड्डखित्ते दभमया पूत्तला या कायव्वा। समखित्तंमि अ इक्को, अवड्ड अभिइ न कायव्यो।" आवश्यकनियुक्ति परिठावणिया समिति मांहिं तथा वृहत्कल्प नी वृत्ति मध्ये पणि पूत्तलां करवां कह्या। “ तथा देहरामाहिं थी कोलीआवडां ना घर, मिथा भमरभमरी ना घर साधु चारित्रीउ आपणा हाथइ परिहार करइ। न करइ त तेह साधनइं प्रायश्चित्त आवई।" वृहत्कल्प मध्ये। "तथाचूर्णि वृत्ति मध्ये कुसील सेववा साधुनई कह्या छई । तथा साधुनइ षासड़ा (जूते) पहिरवां तथा पान खावां तथा फल केला आदि देइनइ वृक्ष थी चुंटी खावां बोल्यां छइ। तथा चारित्रीया नइं रात्रि आहार लेवू कहिउं छइ, ते लिखीइ छइ- “इयाणिं कप्पिआ भणत्ति, अणाभोग दारगाहा- अणाभोगेण वा राइभत्तं भुंजज्जा, गिलाणकारणेण वा, अद्धापड़िसेवणेण वा दुल्लभदव्व वा ठता (?) वा उत्तमट्टपडिवण्णो राइभतं भुंजेज्जा। ऊसकालं वा गच्छाणुकंपयाए वा राइभत्ताणुना, सुत्तत्यविसारए वा राइभत्ताणुनाए संखेवत्यो।' इदानी एकैकस्य द्वारस्य विस्तरेण व्याख्या क्रियते।...." निशीथचूर्णि मध्ये। तथा अनंतकाय, डांडउ लेवउ कहिउ छइ, ते अधिकार लिखीइ छइ- “गिलाणो बालो व उवही वा, अद्धाणे तुम्भंति, सावयभए निवारणट्टा घेप्पंति उवहिं सरीराणं बहणट्ठा, पडिणीयगसाणमादीणणिवारणट्ठा पुव्विं अचित्तं, पच्छा मीसं से परित्ताणं, पुष्पं पुव्वं परित्तं जाव पच्छा अनंत....।” तथा एतला बोल आदई देइ घणां बोल वृत्ति चूर्णि माहिं सूत्रविरुद्ध दीसई छई, ते वृत्ति चूर्णि किम माइ? डाहु हुइ ते विचारी जो ज्यो , एह सत्तावनमु बोल। ५८. अट्ठावनमु बोल हवइ अट्ठावनमु बोल लिखीइ छइ। तथा जे अनंता मोक्ष पुहता, वर्तमान कालइ जे मोक्ष पुहचई छई अनइ अनागत कालई अनंता मोक्ष पुहचस्यई ते श्री वीतरागई इणी परिइं मोक्ष कही, ते लिखीइ छइ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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