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________________ परिशिष्ट ५१९ सच्चे पंचते, तं जहा-नाम सच्चे, दव्वसच्चे, ठवणसच्चे, भावसच्चे।" इहां केतलाएक इम कइहं छइं-जउ वीतरागे स्थापनासत्य कही। तउ स्थापना आराध्य नथी? तेहना प्रत्युत्तर प्रीछउ, ए च्यार सत्य कह्यां, ते भाषा उपरि छइं, पणि आराध्य उपरि नथी। एह ठाणांग मध्ये दसमइ ठाणइ दस सत्य कह्यां छइ, तउ ते काइ दसइ स्युं आराध्य छइं? ते तउ भाषा उपरि छई। ते लिखीए छइ-“दसविहे सच्चे पंत्रत्ते, तं जहाजणवयसच्चे, संमयसच्चे, ठावणासच्चे, नामसच्चे, रुवसच्चे, पहुच्चसच्चे, विवहारसच्चे, भावसच्चे, भोगसच्चे, उवम्मसच्चे।” तथा श्री पन्नवणा मध्ये दसविहे सच्चे भाषापद मध्ये कह्यां छई। तउ जोउनइ ते मध्ये ठवणसच्चे कहिलं, ते भाषासत्य कहीइ, पणि आराध्य नहीं। डाहु हुइ ते विचारी जोज्यो। इहाइ सच्चे शब्द कहिउ ते एतला भणी, जे जेहनउं जेहवू नाम हुइ तेहनई तेहवइं नामिइं बोलावतां जूलूं नहीं। जिम को एक नुं नाम कुलवर्द्धन हुई, अनइ तेह जण्यां पछी कुलक्षय थयुं हुइ, तेहू पणि तेहनइं कुलवर्द्धन कही बोलावतां जूंठू नहीं। तथा घी नुं घडु हुइ, अनइ तेह माहिं थी घी ठालव्युं हुइ, अनइ तेह घड़ानइं घी नु घडु कहीइ। तउ तेहनइं (घी नु घडु) कहतां जूलूं नहीं। इत्यादिक भाषा उपरि छइ। इहां आराध्यविशेष कांइ नथीं डाहा हुइ ते विचारी जोज्यो । एह अढारमु बोल। १९. ओगणीसमु बोल हवइ ओगणीसमु बोल लिखीइ छइ- तथा श्री अनुयोगद्धार मध्ये आवश्यकना च्यारि निक्षेपा कह्या छई। तिहां केतला एक कहइ छइं-इहां आवश्यक करतां थापना करी मांडवी कही छइ। ते कहण गाढ़ा विरुद्ध दीसइ छई। ते पीछठ, इहां तउ आवश्यकना च्यारी निक्खेवा कह्या छइं , ते इम कह्या छई। नाम आवश्यक ते कहीइं जे कांई जीव अथवा अजीवनं नाम आवश्यक दीघु हुइ। तथा स्थापनावश्यक ते कहीइ, जे साधु अथवा साध्वी अथवा श्रावक अथवा श्राविका जिम आवश्यक करइ। तेहवु आकार को एक करइ, अथवा असद्भाव काष्ठादिकनई कहइ जे ए आवश्यक ते स्थापना द्रव्यावश्यक कहीइ। तथा द्रव्यावश्यकना घणां एकक भेद कह्या छई। जाणगसरीर, भविअसरीर इत्यादि। तथा लोकविहाणा मांहिं उठी मुख धोइ लूगडां पहिरइ, तंबोल वावरई, इत्यादिक द्रव्यावश्यक कहीइ। तथा “समणगुणमुक्कजोगी, जाव आवस्सयं चिट्ठइ" एह पणि द्रव्यावश्यक कहीइ। इत्यादि घणां बोल कह्या छई एह मांहिं आपणइ कांइ आराध्य नथी। आपणइ तउ लोकोत्तर भावावश्यक आराध्य छइ। डाहु हुइ ते विचारी जोज्यो । इहां सत्र माहिं आवश्यक करतां स्थापना करवी कही नथी। तथा इहांइ सूत्र ना पणि च्यारि निक्खेवा कह्या छई। तथा बंघ आदि देह घणां बोल ना निक्खेवा कह्या छई। एकला आवश्यक उपरि तउ निक्खेवा कह्या नथी। डाहु हुइ ते विचारी जोज्यो । एह ओगणीसमु बोल। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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