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________________ परिशिष्ट ५०५ तु हवइ डाहा हुइ ते विचारी जोज्यो, जउ धर्मनइं काजइं हिंसा करतां निर्जरा थाइ, अनइ जउ धर्मनइं काजई हिंसा कीजइ ते हिंसा न कहीइ तु रेवतीनु पाक श्री महावीरइ सिं न लीधु? तथा कोई एक धर्मनइं काजइं आधाकर्मी आहार करी साधुनई दिइ ते साधु न लिइ ते स्या भणी तथा वखाण करतां मुहडइ छेहडु (छेड़ो) तथा हाथ दिइ स्या भणी? तथा धर्मनइं काजई हिंसा परूपई तेहनई वीतरागे अनार्यवचनना बोलणहारा कां कह्यां? तथा जे श्रमण माहण हिंसा परूपइ तेहनई “बहुदंडणाणं, मुंडणाणं जाव तमाई मरणाणं, पीआमरणाणं' इत्यादि बोल कां कह्या? विवेकी हुइ ते विचारी जोज्यो । अनइ वली जु धर्मनइ कीधइ आश्रव नहीं तु साधु ईर्याइं चालइ ते स्या भणी ? पणि जाणज्यो जे सूत्रविरुद्ध कहइ छई । एह त्रीजु बोल।" ४. चउथउ बोल “हवइ चउथउ बोल लिखीइ छइ। तथा श्री वीतराग देवइ श्री सुयगडांग अध्ययन १७ मई एहवं कहिउं-जे पूर्व पश्चिम उत्तर दक्षिणनइ विषइ एणिं परइं मोक्ष पामइ ते अधिकार लिखीइ छ।। सूयगडांग सूत्रना पुंडरीक नामना सत्तरमा अध्ययनो पाठ नीचे मुजब छे: "से बेमि पाईणं वा जाव एवं से परिनायकम्मे एवंसि विवेअकम्मे, एवंसि वि अंतकारएभवतीतिमक्खायं, तत्थ खलु भगवता छज्जीवनिकायहेउ पन्नत्ता तं जहा- पुढ़वीकाइए जाव तसकाइए से जहानामए मम अस्सायं दंडेण वा, अट्ठीण वा, मुट्ठीण वा, लेढूण वा, कवालेण वा आउट्टिज्जमाणस्स वा हम्ममाणस्स वा, तज्जिज्जमाणस्स वा, ताडिज्जमाणस्स वा परियाविज्जमाणस्स वा, किलामिज्जमाणस्स वा, उद्दविज्जमाणस्स वा जावलोमुक्खणणविहिं साकारगं दुक्खं भयं पड़िसंमुवेदेमि, इच्चेवं जाव णं सव्वे पाणा, जाव सव्वं सत्ता, दण्डेण वा जाव कवालेण वा आउट्टिज्जमाणा वा हम्ममाणा वा, तज्जिज्जमाणा वा, तालिज्जमाणा वा, परिताविज्जमाणा वा, उद्दविज्जमाणा वा, जाव लोमुक्खणणमायमविहिं साकारगं दुक्खं भयं पड़िसंवेदेति । एवं नच्चा, सव्वे पाणा जाव सत्ता ण हंतव्वा ण अज्झावेयव्वा, ण परिघेतव्वा, ण परितावेयव्वा, ण उद्दवेयव्वा । से बेमि, जे अतीता, जे अ पडुप्पन्ना, जे अ आगमिस्सा अरिहंता भगवंता सव्वे ते एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पन्नति सव्वे पाणा जाव सत्ता, ण हंतव्वा ण अज्झावेअव्वा ण परिघेतव्वा ण परितावेयव्वा ण उद्दवेयव्वा। एस धम्मे धुवे णीतिए सासए समेच्च लोगं खेअण्णेहिं पवेदिते।" इहां श्री वीतरागइ एकांत दयाइ मोक्ष कहीं । पणि किहांई हिंसाइ मोक्ष नथी । ए चउथउ बोल। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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