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________________ आचार्य हरजीस्वामी और उनकी परम्परा ४६५ मुनि श्री हुक्मीचन्दजी और उनकी परम्परा श्री हरजी स्वामी के शिष्य श्री गोदाजी हुये। श्री गोदाजी के शिष्य श्री परशरामजी के तीन शिष्य हुए - श्री खेतसीजी, श्री खेमसीजी और श्री लोकमलजी। लोकमलजी के शिष्य श्री नाहरमलजी और उनके शिष्य श्री दौलतरामजी हुए। दौलतरामजी के शिष्य श्री लालचन्दजी हए। लालचन्दजी के शिष्य श्री हुक्मीचन्दजी से एक पृथक् परम्परा चली। हमें इस समुदाय की गुरु-शिष्य परम्परा की जानकारी तो उपलब्ध होती है किन्तु लोकमलजी से हुक्मीचन्दजी तक के जो प्रमुख मुनि या आचार्य हुए हैं उनका जीवनवृत्त उपलब्ध नहीं है, अत: इस परम्परा का विस्तृत विवेचन पूज्य हुक्मीचन्दजी से प्रारम्भ करेंगे। आचार्य श्री हुक्मीचन्दजी श्री हुक्मीचन्दजी का जन्म शेखावटी के टोडा नामक ग्राम में हुआ था। किन्तु कब हुआ इस विषय में कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती है, किन्तु इतना उल्लेख जरुर मिलता है कि किशोरावस्था में ही संसार की असारता के विषय में आपकी भावनात्मक दृष्टि थी । सम्भवत: यही से आप में वैराग्य की भावना का उदय हुआ। वि०सं० १८७९ मार्गशीर्ष अष्टमी को बूंदी नगर में आचार्य श्री लालचन्दजी की निश्रा में आप दीक्षित हुए। अपने गुरु के आचरण में शिथिलता से क्षुब्ध हो आपने अलग विचरण करना प्रारम्भ कर दिया तथा आचार्य श्री शीतलदासजी के शिष्य मुनि श्री मोतीरामजी के साथ मिलकर आपने शिथिलाचार के विरुद्ध आवाज उठाई और निर्ग्रन्थ श्रमण संघ की उत्क्रान्ति तथा श्रमण परम्परा की शुद्धता के लिये कार्य प्रारम्भ कर दिया। आप घोर संयमी और कठोर तपस्वी थे। ऐसी जनश्रुति है कि आप प्रतिदिन दो हजार शक्रस्तव एवं दो हजार गाथाओं का परावर्तन तथा २०० नमोत्थुणं का स्मरण किया करते थे । असाध्य कष्टों और परीषहों को समता भाव से सहते हुये आपने अपने जीवन में साध चर्या के आदर्श को बनाये रखा। आपने २१ वर्षों तक बेले-बेले तपसाधना की और १८ द्रव्यों से अधिक का त्याग किया । वि० सं० १९१७ वैशाख शुक्ला पंचमी को मध्यप्रदेश के जावरा में आपका स्वर्गवास हो गया। आचार्य श्री शिवलालजी आचार्य श्री हुक्मीचन्दजी की परम्परा में द्वितीय पट्टधर के रूप में मुनि श्री शिवलालजी पट्ट पर विराजित हुए। आपका जन्म मालवा के धामनिया (नीमच) ग्राम में हुआ। वि० सं० १८९१ में आप दीक्षित हुये। आचार्य श्री हुक्मीचन्दजी के स्वर्गस्थ हो जाने पर वि०सं० १९१७ में आप संघ के आचार्य बने। आपने शास्त्रों का गहन अध्ययन किया था। आप न्याय एवं व्याकरण विषय के अच्छे ज्ञाता थे। ऐसा उल्लेख मिलता है कि आप यदा कदा भक्ति भरे जीवन स्पर्शी, औपदेशिक कवित्त भजन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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