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त्रयोदश अध्याय आचार्य हरजीस्वामी और उनकी परम्परा
सतरहवीं शती के अन्त में और अट्ठारहवीं शती के प्रारम्भ में जब लोकागच्छ में शिथिलता आने लगी तब जिन आत्मार्थी क्रान्तिवीरों ने क्रियोद्धार किया था उनमें हरजी स्वामी भी प्रमुख थे। ‘खम्भात पट्टावली' के अनुसार आपने कुंवरजी गच्छ से निकल कर क्रियोद्धार किया था। 'प्रभुवीर पट्टावली' में वि०सं० १७८५ के बाद आप द्वारा क्रियोद्धार करने का उल्लेख है जो उचित नहीं जान पड़ता, क्योंकि 'अमरसूरि चरित्र' के पृ०- ३९ पर आचार्य श्री अमरसिंहजी जिनका समय वि० सं० १७१९ से १८१२ का है, से आचार्य हरिदासजी के अनुयायी मुनि श्री मलूकचन्दजी, आर्या श्री फूलांजी तथा पूज्य श्री परसरामजी के अनुयायी श्री खेतसीजी व खिंवसीजी, आर्या श्री केशरजी आदि पंचेवर ग्राम में एकत्रित होकर एक-दूसरे से अपने विचारों का आदानप्रदान किया था। अत: हरजी स्वामी का क्रियोद्धारकाल वि०सं० १७०० से पूर्व ही मानना उचित रहेगा।
हरजी स्वामी के विषय में दो प्रकार की मान्यतायें मिलती है। एक मान्यता के अनुसार हरजी स्वामी और गोदाजी यति केशवजी या कुंवरजी के गच्छ के साधु थे। यह मान्यता आचार्य श्री हस्तीमलजी की है। दूसरी मान्यता 'स्थानकवासी जैन मुनि कल्पद्रुम' की है। उसके अनुसार श्री हरजी स्वामी लवजी ऋषि के शिष्य तथा श्री गोदाजी श्री सोमजी ऋषि के शिष्य थे। श्री हरजी स्वामी लवजी ऋषिजी के शिष्य रहे हों या केशवजी के किन्तु इतना सत्य है कि कोटा सम्प्रदाय का प्रारम्भ श्री हरजी स्वामी से हुआ। मुनि श्री हरजी स्वामी की परम्परा से भी कई शाखाएँ प्रस्फुटित हुईं। श्री हरजी स्वामी के पाट पर श्री गोदाजी विराजित हुए और गोदाजी के पश्चात् मुनि श्री परसरामजी ने संघ की बागडोर सम्भाली । मुनि श्री परसरामजी के पश्चात् संघ दो भागों में विभाजित हो गया। एक परम्परा का नेतृत्व मुनि श्री खेतसीजी ने किया तो दूसरी परम्परा का मुनि श्री लोकमणजी ने । खेतसीजी की परम्परा आगे चलकर 'आचार्य श्री अनोपचन्दजी की सम्प्रदाय' के नाम से जानी जाने लगी । यद्यपि वर्तमान में यह परम्परा समाप्त हो गयी है। दूसरी परम्परा का नेतृत्व मुनि श्री लोकमणजी कर रहे थे। श्री लोकमणजी के पाट पर श्री मयारामजी बैठे। पूज्य मायारामजी के पाट पर श्री दौलतरामजी विराजित हुए। श्री दौलतरामजी के पश्चात्
१. अमरसूरिचरित्र, पृ० - ३९ * यह परम्परा 'जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ' सम्पादक - कविरत्न श्री केवलमुनि, गुरुगणेश जीवन दर्शन, लेखक- श्री रमेशमुनि, मुनि प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ पर आधारित है।
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