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________________ धर्मदासजी की पंजाब, मारवाड़ एवं मेवाड़ की परम्पराएं - ३७५ दर्शनार्थ पधारे। वि०सं० १९५५ वैशाख कृष्णा त्रयोदशी को ६१ वर्ष की आयु पूर्णकर आप स्वर्गवास को प्राप्त हुए। आचार्य श्री शोभाचन्द्रजी रत्नवंशीय परम्परा में आचार्य के सातवें पट्ट पर मुनि श्री शोभाचन्द्रजी विराजित हुए। आपका जन्म वि०सं० १९१४ कार्तिक शुक्ला पंचमी को हुआ। आपके पिता का नाम श्री भगवानदास छाजेड़ तथा माता का नाम श्रीमती पार्वती देवी था। बचपन से ही आप धीर, गम्भीर रहा करते थे। खेलकूद, हँसी-मजाक के प्रति आपकी उदासीनता को देखते हए आपके पिता श्री भगवानदासजी ने १० वर्ष के अल्पवय में ही आपको व्यवसाय में लगा दिया ताकि संसार के प्रति जो आपके मन में उदासीनता थी वह दूर हो जाये और दुनियादारी में संलग्न हो जायें। किन्तु आप व्यवसाय से समय निकालकर अपनी जिज्ञासाओं को शान्त करने हेतु सन्तों के पास चले जाया करते थे। सौभाग्यवश आपको आचार्य श्री कजोड़ीमलजी का सान्निध्य प्राप्त हुआ। फलत: उनके वैराग्यपूर्ण उपदेश को सुनकर बालक शोभाचन्द्र के मन में अंकुरित वैराग्य के बीज ने वृक्ष का रूप ले लिया और बालक मन ने संयम पथ पर चलने का दृढ़ निश्चय कर लिया। बालक शोभा को उनके पिताजी ने सांसारिक प्रलोभनों, संयममार्ग की कठिनाईयों और परीषहों को बताकर पत्र को संयममार्ग पर न जाने की सलाह दी, किन्तु उसका मन टस से मस नहीं हुआ। उधर गुरु ने भी संयममार्ग अपनाने से पहले शोभचन्द्र की परीक्षा ली और वे सभी कसौटी पर खड़े उतरे। अन्तत: विशाल महोत्सव में १३ वर्षीय शोभाचन्द्रजी की दीक्षा वि०सं० १९२७ माघ शुक्ला पंचमी (वसन्त पंचमी) को जयपुर में आचार्य श्री कजोड़ीमलजी के सानिध्य में सम्पन्न हुई। दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् आप अपने संयमपर्याय में ज्यादा समय आचार्य श्री विनयचन्द्रजी के साथ ही रहे। आचार्य श्री की नेत्र ज्योति चले जाने के कारण प्रात:काल और तीसरे प्रहर का व्याख्यान आप ही वाचते थे। पूज्य आचार्य श्री के दीर्घ स्थिरवास में आप पूज्य श्री के पास ही रहे। इस दौरान आप आचार्य श्री की सेवा करते और साधु-साध्वियों को शास्त्रवाचन देते । शास्त्रवाचन के समय आचार्य श्री आपके निकट ही बैठते और जहाँ कहीं भी आपसे कोई चूक होती तो आचार्य श्री दिशा निर्देश देते हुए कहते- शोभा यों नहीं यों है! । वि०सं० १९२७ से वि० सं० १९७२ तक का आपका काल पूज्य श्री कजोड़ीमलजी और पूज्य श्री विनयचन्दजी की सेवा में बीता । पूज्य आचार्य श्री विनयचन्दजी के स्वर्गवास के बाद अजमेर में मुनि श्री चन्द्रमलजी की सहमति से श्री संघ द्वारा वि० सं० १९७२ फाल्गुन कृष्णा अष्टमी को आपको आचार्य पद दिया गया। ग्यारह वर्षों तक आप आचार्य पद पर रहे। आप स्वभाव से विनयशील, सेवाभावी तथा गम्भीर थे। आगम ज्ञान आपकी विद्वता का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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