SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 297
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य लवजीऋषि और उनकी परम्परा २७९ ग्रहण की। आपके २० शिष्य थे जिनमें मुनि श्री भाणांजी, मुनि श्री लल्लूजी, मुनि श्री देवकरणजी, मुनि श्री तपस्वी फतेहचन्दजी, मुनि श्री गिरधरलालजी आदि प्रमुख थे । वि० सं० १९४९ में ५९ वर्ष की आयु में खम्भात में आपका स्वर्गवास हुआ। इस आधार पर आपका जन्म वि०सं० १८९० में होना चाहिए। आचार्य श्री भाणांऋषिजी. पूज्य हरखचन्दऋषिजी के पश्चात् ग्यारवें पट्ट पर मुनि श्री भाणांऋषिजी बैठे जो हरखचन्दऋषिजी के शिष्य थे। आपके दो शिष्य- मुनि श्री हीराऋषिजी (बड़े) व मुनि श्री हीराऋषिजी और दो प्रशिष्य- मुनि श्री उमेदचन्दजी व मुनि श्री शोभागरऋषिजी हुये जिसका उल्लेख ऋषि कल्पद्रम में उपलब्ध होता है। आपके विषय में इससे अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। आचार्य श्री गिरधारीलालऋषिजी आप खम्भात सम्प्रदाय के बारहवें पट्टधर हुए। आपका जन्म कब और कहाँ हुआ इसकी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती है । इतना उपलब्ध होता है कि अल्पवय में ही वि०सं० १९४० में आपने संयममार्ग अंगीकार कर लिया था। आपकी दीक्षा शाह देवचन्द खुशाल भाई के घर से हुई थी। चिन्तामणि, प्रश्नोत्तरमाला, काव्यमाला आदि काव्य ग्रन्थों की रचना आपने की है । कवि होने के साथ-साथ आपको ज्योतिषशास्त्र का भी अच्छा ज्ञान था । गुजरात, काठियावाड़ और कच्छ आपका विहार क्षेत्र रहा है । मुनि श्री सखाऋषिजी, मनिश्री अमीऋषिजी आदि जब सरत पधारे थे तब आप खम्भात में विराज रहे थे । अपनी अस्वस्थता के कारण आप तो सूरत नहीं पधार सके, किन्तु आपने अपने आज्ञानुवर्ती श्री लल्लूजी आदि चार सन्तों को सूरत भेजा था। आपके दो शिष्य हुए। शिष्यों के नाम उपलब्ध नहीं हैं। वि०सं० १९८३ में आपका स्वर्गवास हो गया। आचार्य श्री छगनलालऋषिजी पूज्य श्री गिरधारीलालजी के स्वर्गस्थ हो जाने पर खम्भात सम्प्रदाय के तेरहवें पट्टधर मुनि श्री छगनलालजी हुए। आप खम्भात निवासी थे। जाति से राजपूत थे। आपके पिता का नाम श्री अवलसिंहजी और माता का नाम श्रीमती रेवाबाई था। श्री सुन्दरलाल माणकचन्द और श्री अम्बालाल लालचन्द वणिक जाति के दो मित्र थे जिनके साथ श्री छगनलालजी सन्तों के पास जाया करते थे। प्रवचन-प्रभाव से आपके मन में वैराग्य की उत्पत्ति हुई । आपने दीक्षा लेने की अनुमति अपने माता-पिता से माँगी। अनुमति मिलने की अपेक्षा आपका विवाह कर दिया गया। फिर भी अन्तत: आपने अपने परिजनों से अनुमति ले ही ली। इस प्रकार वि०सं० १९४४ के पौष शुक्ला दशमी के दिन पूज्य श्री हरखचन्दजी के शिष्यत्व में आप दीक्षित हये। पूज्य गुरुवर्य के सान्निध्य में रहने का सौभाग्य आपको मात्र पाँच वर्ष ही मिला। श्री रत्नचन्दजी, श्री छोटालालजी, श्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy