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________________ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास ऋषि सम्प्रदाय (मंगलऋषिजी) की खम्भात परम्परा लोकाशाह की परम्परा में क्रियोद्धारक पूज्य लवजीऋषि के दो प्रमुख शिष्य हुएसोमऋषिजी और हरिदासजी । सोमऋषिजी की पाट पर हरिदासजी बैठे जिनसे पंजाब परम्परा चली जो आगे चलकर आचार्य अमरसिंहजी की परम्परा के नाम से विख्यात हुई । उधर सोमऋषिजी के शिष्य मुनि श्री कहानऋषिजी हुए जिनसे ऋषि परम्परा का प्रारम्भ हुआ। मुनि श्री कहानऋषिजी के शिष्य मुनि श्री ताराऋषिजी हुए। पूज्य श्री ताराऋषिजी के समय में ऋषि सम्प्रदाय दो भागों में विभक्त हो गया। फलतः मुनि श्री कालाऋषिजी से मालवा सम्प्रदाय अस्तित्व में आया और मुनि श्री मंगलऋषिजी से खम्भात सम्प्रदाय बना। आगे इसी आधार पर इन सम्प्रदायों का कैसे विकास हुआ उसका वर्णन करेंगे। आचार्य श्री कहानऋषिजी २७६ आप पूज्य श्री सोमऋषिजी के शिष्य थे। इनसे ही ऋषि परम्परा का विकास हुआ। आपके जन्म के विषय में कोई विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती, किन्तु इतनी जानकारी मिलती है कि २३ वर्ष की उम्र में आपने दीक्षा ली थी। अतः दीक्षा तिथि के आधार पर वि० सं० १६९० के आस-पास सूरत में आपका जन्म माना जा सकता है । बाल्यकाल से ही आप में धर्म के प्रति लगाव था। वि० सं० १७१० में सूरत में पूज्य श्री लवजीऋषिजी का चातुर्मास हुआ। आप पूज्य श्री के व्याख्यान में प्रतिदिन जाया करते थे। फलस्वरूप आपके मन में सांसारिकता के प्रति विरक्ति के भाव जाग्रथ हो गये। तभी पूज्य श्री सोमऋषिजी बरहानपुर का चातुर्मास समाप्त कर सूरत पधारे । पूज्य सोमऋषिजी के समागम से आपमें वैराग्य की ज्योति प्रकट हुई। फलतः वि० सं० १७१३ में पूज्य सोम ऋषिजी के सान्निध्य में आपने गृहस्थ जीवन छोड़कर संयममार्ग अंगीकार किया। पूज्य श्री सोमऋषिजी के शिष्यत्व में ही आपने आगमों का अध्ययन किया। परम्परा से ऐसा ज्ञात होता है कि आपने ४०००० गाथाओं को कंठस्थ किया था। व्याकरण, न्याय आदि में भी आपकी विशेष योग्यता थी । वि० सं० १७१६ में आप सोमऋषिजी के साथ अहमदाबाद पधारे । आपके व्याख्यान से प्रभावित होकर सरखेज निवासी श्री जीवनभाई कालीदास भावसार के पुत्र धर्मदासजी ने आपके सम्मुख दीक्षित होने के भाव प्रकट किये, किन्तु विचारों में कुछ मतभेद होने के कारण धर्मदासजी ने स्वयं दीक्षा ग्रहण कर ली - ऐसी जनश्रुति है। पूज्य श्री सोमऋषिजी ने मालवा में जिनशासन के प्रचार-प्रसार हेतु मुनि श्री कहानऋषिजी को भेजा। वहाँ जाकर आपने जिनशासन की खूब प्रभावना की । लवजीऋषि की परम्परा में आप तीसरे पाट पर विराजित हुए । रतलाम, जावरा, मन्दसौर, प्रतापगढ़, इन्दौर, उज्जैन, शाजापुर, शुजालपुर, भोपाल आदि क्षेत्र में ऋषि परम्परा आपश्री के नाम से जानी जाती है । इसका मुख्य कारण पूज्य लवजीऋषिजी और सोमऋषिजी का मालवा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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