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________________ २७३ . आचार्य लवजीऋषि और उनकी परम्परा आनन्दऋषिजी की शिष्य परम्परा मुनि श्री हर्षऋषिजी आपने श्री रत्नऋषिजी के मुखारविन्द से दीक्षा अंगीकार की और पण्डितरत्न श्री आनन्दऋषिजी के शिष्य कहलाये। कुछ समयोपरान्त आप किसी कारणवश संघ से अलग हो गये। मुनि श्री प्रेमऋषिजी आपका जन्म वि०सं० १९३४ श्रावण शुक्ला पंचमी को जखौबंदर ग्राम में हुआ। आपकी माता का नाम श्रीमती कुंवरबाई व पिता का नाम श्री मेघजी भाई था। ५७ वर्ष की आयु में वि०सं० १९९० माघ शुक्ला दशमी को बोड़वद ग्राम में पण्डितरत्न आनन्दऋषिजी के शिष्यत्व में आप दीक्षित हुये। आपका पहला चातुर्मास वि०सं० १९९१ में पाथर्डी में हुआ। इसी प्रकार क्रमश: वि०सं० १९९२ का पूना (घोडनदी), वि०सं० १९९३ का बम्बई, १९९४ का घाटकोपर (बम्बई), १९९५ का पनवेल , १९९६ का अहमदनगर, १९९७ का बोरी, १९९८ का बाम्बोरी, १९९९, २००० का पाथर्डी में आपके चातुर्मास हुये। इसी वर्ष वि०सं० २००० आश्विन कृष्णा तृतीया को आपका संथारापूर्वक स्वर्गवास हो गया। मुनि श्री मोतीऋषिजी आपका जन्म पूना के नायगाँव में वि०सं० १९५४ भाद्र कृष्णा चतुर्दशी दिन शनिवार को हुआ। ३८ वर्ष की अवस्था में वि०सं० १९९२ फाल्गुन शुक्ला पंचमी दिन गुरुवार को पूना में आप मुनि श्री आनन्दऋषिजी के सान्निध्य में दीक्षित हुये। वि०सं० १९९३ के घोड़नदी चातुर्मास में आपने अध्ययन प्रारम्भ किया। संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं का अध्ययन किया। पनवेल में गुरुवर्य के मुखारविन्द से धर्मभूषण परीक्षा के पाठ्य ग्रन्थों का अध्ययन किया और श्री ति० र० स्था० जैन धार्मिक परीक्षा बोर्ड उत्तीर्ण किया। तत्पश्चात् 'पाणिनीय व्याकरण', 'हितोपदेश', 'न्यायदीपिका', 'प्रमाणनयतत्त्वालोक' आदि का गहन अध्ययन किया तथा 'जैन सिद्धान्त प्रभाकर' और 'जैन सिद्धान्तशास्त्री' की परीक्षा उत्तीर्ण की । इनके साथ ही आपने थोकड़ों, बोलों व शास्त्रों का ज्ञान भी प्राप्त किया। मुनि श्री हीराऋषिजी आपका जन्म कच्छ के देसलपुर ग्राम में हुआ । आपके पिता का नाम खिमजी (खींवजी) था। वि० सं० १९९६ माघ शुक्ला षष्ठी दिन रविवार को युवाचार्य मुनि श्री आनन्दऋषिजी के सानिध्य में लोनावाला में आप दीक्षित हुये। ऐसा उल्लेख मिलता है कि दीक्षा के समय आपकी आयु २५ वर्ष की थी। अत: कहा जा सकता है कि आपका जन्म वि०सं० १९७१ के आस-पास हुआ होगा। क्रियाकाण्ड में आपकी विशेष रुचि थी। आपने ३०-३५ थोकडे कंठस्थ किये थे। आपने २१ दिन ही संयमजीवन का पालन किया था कि दावड़ी (पूना) में अचानक आपका स्वर्गवास हो गया। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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