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________________ आचार्य लवजीऋषि और उनकी परम्परा २४१ ऋषि सम्प्रदाय (कालाऋषिजी) की मालवा परम्परा आचार्य श्री कालाऋषिजी. जैसा कि पूर्व में वर्णन आया है कि मुनि श्री ताराऋषिजी के समय से ऋषि सम्प्रदाय दो भागों में विभक्त हो गया - खम्भात सम्प्रदाय और मालवा सम्प्रदाय। मालवा सम्प्रदाय का प्रारम्भ मुनि श्री कालाऋषिजी से हुआ। ऋषि सम्प्रदाय की मालवा परम्परा के पाँचवें पाट पर (पूज्य श्री लवजीऋषि की पट्ट परम्परा में) मनि श्री कालाऋषिजी विराजित हुए। यद्यपि मालवा संघाड़ा के आप प्रथम पट्टधर हुये। आपके विषय में तिथियों से सम्बन्धित कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती है। आपकी दीक्षा पूज्य श्री ताराऋषिजी की निश्रा में हई । पूज्य श्री के सानिध्य में आपने आगमिक ज्ञान प्राप्त किया। आपने अपनी योग्यता और कुशलता से जिनशासन की खूब सेवा की। आपकी विद्वता और कुशलता को देखते हुए चतुर्विध संघ ने आपको आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया। रतलाम, जावरा, मन्दसौर, भोपाल, शुजालपुर, शाजापुर आदि आपके विहार क्षेत्र रहे हैं। आपके चार शिष्यों के नाम उपलब्ध होते हैं—मुनि श्री लालजीऋषिजी (बड़े), मुनि श्री वक्सुऋषिजी, मुनि श्री दौलतऋषिजी, मुनि श्री लालजाऋषिजी (छोटे)। आपकी जन्म-तिथि, दीक्षा-तिथि, स्वर्गवास-तिथि आदि की जानकारी उपलब्ध नहीं है। आचार्य श्री बक्सुऋषिजी. पूज्य कालाऋषिजी के पाट पर मुनि श्री वक्सुऋषिजी बैठे। आपके विषय में भी कोई प्रामाणिक साक्ष्य नहीं मिलते हैं। जनश्रुति से ऐसा ज्ञात होता है कि आप स्वभाव से बड़े धीर, गम्भीर और शान्तचित्त थे । कालाऋषिजी के सान्निध्य में आपने दीक्षा ग्रहण की थी । आपके दो शिष्य थे- मुनि श्री पृथ्वीऋषिजी और मुनि श्री धन्नाऋषिजी। आचार्य श्री पृथ्वीऋषिजी. पूज्य वक्सुऋषिजी के पट्टधर के रूप में मुनि श्री पृथ्वीऋषिजी ने संघ की बागडोर संभाली। मुनि श्री वक्सुऋषिजी के सानिध्य में आपने दीक्षा ग्रहण की और उन्हीं के निर्देशानुसार आपने संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं तथा आगम का तलस्पर्शी अध्ययन किया। आपका मुख्य विहार क्षेत्र मालवा और मेवाड़ था। आपने अपने प्रवचनों के माध्यम से नशा जैसे कुव्यसन से समाज को मुक्त कराने का प्रयास किया। आपके निर्देशन में जिनशासन की अत्यधिक प्रभावना हुई । आपके पाँच शिष्य हुए जिनके नाम इस प्रकार हैं -मुनि श्री शिवजीऋषि, मुनि श्री सोमऋषिजी, मुनि श्री भीमऋषिजी, मुनि श्री टेकाऋषिजी और मुनि श्री चीमनाऋषिजी आदि। आपके गुरुभ्राता मुनि श्री धन्नाऋषिजी भी बड़े योग्य और प्रखर प्रवचनकार थे। किसी बात पर आप दोनों में मतभेद हो गया, लेकिन अनुकरणीय बात यह है कि आप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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